हँसना यहाँ गुनाह है
लगा दो पहरे खुशियों पर
क्यों मनुआ बेपरवाह है
हँसना यहाँ गुनाह है !
खुश रहना क्योंकर सीखा है
यह तो गमों की बस्ती है,
आँसूं ही भाते हैं जग को
नहीं हँसी की हस्ती है !
पर काट दो उम्मीदों के
क्यों उड़ने की चाह है
हँसना यहाँ गुनाह है !
पलकों पर क्यों पुष्प सजाये
अविरत पीड़ा बहने दो,
मुखर हुए क्यों नयन बोलते
चुप ही इनको रहने दो !
पुनः बांध लो जंजीरों को
लम्बी अति यह राह है
हँसना यहाँ गुनाह है !
आपकी लिखी रचना बुधवार बुधवार 24 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
भावपूर्ण रचना स्वयं शून्य
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंयही नियति बना दी गई है- पता नहीं क्यों!
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा है आपने। स्वयं शून्य
जवाब देंहटाएंमार्मिक तंज।
जवाब देंहटाएंदिल को स्पर्श करते भाव ।
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