उसने कहा था
जानते हो
क्यों भला-भला लगता है ?
निरभ्र..विस्तीर्ण गगन
निस्सीम, निस्तब्धता छू जाती है
अंतर आकाश को
जैसे कोई दो बिछुड़े मित्र मिलकर
प्रसन्न हो जाएँ !
गंगा की लहरों से खेलना
युगों से लुभाता रहा है क्यों हमें ?
सागर की उत्ताल लहरों का स्पर्श
कर जाता है रोमांचित
क्योंकि नाच उठता है
भीतर का जल तत्व उसके साथ
उन पलों में होकर एकाकार !
अग्नितत्व भी हो जाता है तरंगित
निहार उठती हुई लपटों को
थिरक उठते हैं कदम तभी
होलिकादहन और लोहरी के उत्सवों में !
हो जाता होगा तन्मय वायुतत्व भी
सहला जाता है जब हवा का झोंका हौले से
और.... भला-भला लगता है माटी का स्पर्श
क्यों कुम्हार को ?
किसान घंटो गुजारता है उसके अंग-संग
उनके भीतर की माटी भी लेती है कोई आकार
पंच तत्वों से बने मानव
उन्हीं से जुड़कर होते हैं
वास्तव में आनंदित, प्रफ्फुलित !
सच में मानव पञ्च तत्वों से दूर कब रह पाता है. जीवन के बाद भी इन्ही पञ्च तत्व में विलीन हो जाता है..बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसत्य वचन ! स्वागत व आभार कैलाश जी !
हटाएंवही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप,हृदय में बनता प्रणय अपार,
जवाब देंहटाएंलोचनों में लावण्य अनूप लोक शेवा में शिव अविकार!
अति सुंदर ! वही सत्यं शिवं सुन्दरं है....स्बागत व आभार प्रतिभा जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी...
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