एक इल्तजा 
दबा न रहे राख में दहकने दो अंगारा 
मखमली सुर्ख चमकने दो अंगारा, 
जल जाने दो हर सूं... कि निखर आएगा रूप 
बरस जाने के बाद ज्यों खिल के निकले है धूप !
रहे न कोई पर्दा आज गिर जाने दो हर दीवार 
कभी तो हो वह सामने... कभी तो हो दीदार 
हट जाने दो हर शर्मोहया आज सामने आओ 
फिर न मिलेगी यह रात अब न शरमाओ !
ओ खुदा ! अब न तुझे दूर से पुकारेंगे 
तेरे हैं हम हक से तुझे निहारेंगे
अब निभाने होंगे वे सारे वादे तुझे 
नहीं बहला सकेगा अब दूर से मुझे ! 
अजीब बात है यह वह ही लिखवाता है 
खुद से मिलने के सिले किये जाता है,
‘मैं’ तो हूँ ही नहीं इस कहानी में 
 बस थामी है कलम हाथ में, नादानी
में ! 

सूफ़ी अध्यात्म के पड़ाव प्रत्यक्ष हो रहे हैं - भाव पूर्ण पंक्तियाँ ,साधु !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रतिभाजी..आपकी नजर को नमन !
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