राग प्रीत का जो साधा था
है विशाल, अनन्त, अनूठा
कैसे लघु मन उसको जाने
शिखर चाहता भय खाई से
सीमा स्वयं की, यह न माने !
खुल जायेगा हर वह बंधन
सुख की आस में जो बाँधा था,
छलक-छलक वह बह जाएगा
राग प्रीत का जो साधा था !
युगों-युगों से गूँज रहा स्वर
अंतरिक्ष न बाँच सका है,
गा - गा कर खग वृन्द थके न
क्यों उर में संदेह जगा है !
अश्रु बने हैं पाती जिसके
कतरा- कतरा बहे सभी दुःख,
एक अलस मद मस्त खुमारी
बून्द-बून्द कर रिसता है सुख !
सदा निहारे नयन मौन हो
श्वासों में गंध बन बसता,
साया कोई संग चल रहा
परस पवन का दे-दे हँसता !
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