कोई राग छिपा कण-कण में
पाहन में ज्यों छिपी अगन है
उर भावों में छिपी तपन है,
कस्तूरी सी महके भीतर,
घट-घट में जो बसी लगन है !
पाहन में ज्यों छिपी अगन है
उर भावों में छिपी तपन है,
कस्तूरी सी महके भीतर,
घट-घट में जो बसी लगन है !
कोई राग छिपा कण-कण में
मृदु अनुराग बसा जीवन में,
मद्धिम-मद्धिम दीप जल रहा
इक सुगंध हर अंतर्मन में !
एक अरूप रूप के भीतर
दृष्टा तकता एक निरंतर,
तम कितना भी घन छा जाए
हीरा एक चमकता भीतर !
देह धरा सी गगन सदा मन
पंख लगा उड़ने को तत्पर,
एक संपदा लेकर आया,
खोल पोटली देखें थमकर !
मृदु अनुराग बसा जीवन में,
मद्धिम-मद्धिम दीप जल रहा
इक सुगंध हर अंतर्मन में !
एक अरूप रूप के भीतर
दृष्टा तकता एक निरंतर,
तम कितना भी घन छा जाए
हीरा एक चमकता भीतर !
देह धरा सी गगन सदा मन
पंख लगा उड़ने को तत्पर,
एक संपदा लेकर आया,
खोल पोटली देखें थमकर !
बहुत प्यारी रचना ... बधाई आपको !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सतीश जी !
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.05.2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2633 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
स्वागत व आभार दिलबाग जी !
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