लहरें उठतीं अम्बर छूने
जग पल-पल रूप बदलता है
कैसे नयनों में थिर होगा,
लहरें उठतीं अम्बर छूने
गिर जातीं सागर फिर होगा !
खो जाता ज्यों भोर सितारा
अस्त हो रहे प्राणी ऐसे,
दृश्य बदलता पलक झपकते
दुनिया रंगमंच हो जैसे !
विस्मयकारी जग का मालिक
स्वयं छुपा है पट के पीछे,
अकुलाते यूँ व्याकुल प्राणी
अभिनय को सत्य मान बैठे !
जब वही रूप धर कर आया
फिर कौन यहाँ किससे आगे,
नन्हा सा कीट भी उसका है
ब्रह्मा भी भज उसको जागे !
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
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