राज खुलता जिंदगी का
एक उत्सव जिन्दगी
का
चल रहा है
युग-युगों से,
एक सपना बन्दगी
का
पल रहा है युग
युगों से !
घट रहा हर पल नया
कुछ
किंतु कण भर भी न
बदला,
खोजता मन जिस
हँसी को
उसने न घर द्वार
बदला !
झाँक लेते उर
गुहा में
सौंप कर हर इक
तमन्ना,
झलक मिलती एक
बिसरी
राज खुलता जिंदगी
का !
मिट गये वल्लि के
पुतले
चंद श्वासों की
कहानी,
किंतु जग अब भी
वही है
है अमिट यह
जिंदगानी !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.7.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3022 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
हटाएंये उत्सव रो हाल पल है और इसका राचीयता जानता है इस खेल को ... हर पल जो भी घट रहा है हम उसके साक्षी हैं ... हम न भी हों रो भी ये चलता है पल पल ...
जवाब देंहटाएंगहरा चिंतन इस रचना में ... सुंदर ...
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ जुलाई २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहब सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अभिलाषा जी !
हटाएंअप्रतिम अतुलनीय।
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव रचना अनिता जी गहराई समेटे!!