मन बेचारा
तोड़ डाला महज खुद को
चाह जागी जिस घड़ी थी,
पूर्ण ही था भला आखिर
कौन सी ऐसी कमी थी !
बह गयी सारी सिखावन
चाह की उन आँधियों में,
खुदबखुद ही कदम जैसे
बढ़ चले उन वादियों में !
एक झूठी सी ख़ुशी पा
स्वयं को आजाद माना,
चल रहा चाह से बंधा
राज यह मन ने न जाना !
स्वयं ही उलझन रचाता
स्वयं रस्ता खोजता था,
दिल ही दिल फिर फतेह की
गलतफहमी पालता था !
उसी रस्ते पे न जाने
लौट कितनी बार आया,
जा रहा है स्वर्ग खुद को
नित नया सपना दिखाया !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-07-2019) को " हम तुम्हें हाल-ए-दिल सुनाएँगे" (चर्चा अंक- 3383) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीया
जवाब देंहटाएंसादर
स्वागत व आभार !
हटाएंये मन की अवस्था ही तो है ...
जवाब देंहटाएंकई बार ऐसा लगता है की हम ही रजा हैं और जो हो रहा अहि हम ही कर रहे हैं ...
पर हर बार यह गलत निकलता है..स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंगहन भाव समेटे पंक्तियां ...बहुत ही बढि़या अभिव्यक्ति ।
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