सोमवार, जुलाई 5

जैसे कोई द्वार खुला हो

 जैसे कोई द्वार खुला हो

भीतर-बाहर सभी दिशा में

बरस रहा वह झर-झर-झर-झर,

पुलक उठाता होश जगाता

भरता अनुपम जोश निरंतर !


जैसे कोई द्वार खुला हो

आज अमी की वर्षा होती,

आमन्त्रण दे मुक्त गगन भी

धार सहज ही रहे भिगोती !


रंचमात्र भी भेद नहीं है

जल से जल ज्यों मिल जाता है,

फूट गयीं दीवारें घट की

दौड़ा सागर भर जाता है !


मेघपुंज बन कभी उड़े मन

कभी हवा सँग नृत्य कर रहा,

पीपल की ऊँची फुनगी पर

खगों के सुर में सुर भर रहा !


कभी दिशाएं हुईं सुवासित

सुख सौरभ चहुँ ओर बिखरता,

धूप रेशमी उतरी नभ से

जल कण से तृण कोर निखरता !


तन का पोर-पोर कम्पित है

गूँज इस ब्रह्मांड की सुनता,

उर बौराया चकित हुआ सा

देख-देख नव सपने बुनता !


14 टिप्‍पणियां:

  1. सुवासित सुरभित रचना!!बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत मनभावन रचना ।
    दिल्ली में बारिश नहीं हो रही । इसी को पढ़ कर एहसास जगा रहे ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मानसून अब दूर नहीं है, झमझमाझम वर्षा के लिए तैयार रहिए, आभार!

      हटाएं
  3. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. भाव विभोर कर गई शब्दों का ताना-बाना
    बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं
  5. कभी दिशाएं हुईं सुवासित
    सुख सौरभ चहुँ ओर बिखरता,
    धूप रेशमी उतरी नभ से
    जल कण से तृण कोर निखरता !
    वर्षा के आगमन से , मन की ख़ुशी घुलमिल जाए तो यही सब होना तय है | सुंदर , अभिनव रचना अनीता जी |

    जवाब देंहटाएं