शुक्रवार, जुलाई 5

जीवन का यह कलश रीतता

जीवन का यह कलश  रीतता


कितना रस्ता चल कर आया 

फिर भी कहीं नहीं पहुँचा है, 

जाने कब यह राज खुलेगा 

मंज़िल पर ही सदा खड़ा है !


एक सुकून उतरता भीतर 

मधुर परस जब उसका मिलता,

जिसका पता खोजते ही तो 

जीवन का यह कलश रीतता ! 


नेति-नेति के पथ पर चल कर 

उसके द्वारे जाना होगा, 

 तज कर सभी प्रवेश मिलेगा 

सहर्ष सभी लुटाना होगा !


हल्का होकर तभी उड़ेगा 

जैसे कोई  श्वेत पंख हो,

या तुषार  की पावन बूँदें 

फूलों की भीनी सुगंध हो !


होकर अगर न होना आये 

यही राज उसने सिखलाया, 

जैसे विमल  भोर का तारा 

अगले  ही पल नज़र न आया !


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