नीरज - गीतों के राजकुमार
दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देश-विदेश
याद आ रहा है उनका प्रसिद्ध गीत, जिसे यकीनन आपमें से हरेक ने कभी न कभी सुना होगा :
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई।
वर्षों पहले न जाने कितनी बार इस अमर गीत को गुनगुनाया होगा। आज भी हर किसी की ज़ुबान पर यह गीत सहज ही आ जाता है। यह गीत 1954 में हुए एक दर्दनाक अनुभव के बाद कवि की कलम से निकला था। बाद में ‘नई उमर की नई फसल’ फ़िल्म में इस गीत का फ़िल्मांकन किया गया। इसकी याद आते ही चित्रपट के लिए लिखे गये उनके अन्य प्रसिद्ध गीत भी एक-एक कर दिल के द्वार पर दस्तक देने लगे :
शोख़ियों में घोला जाये फूलों का शबाब, फूलों के रंग से, खिलते हैं गुल यहाँ, लेना होगा जन्म हमें कई-कई बार और भी न जाने कितने ही सदाबहार गीत।
रेडियो पर प्रसीरत होने वाले कवि सम्मेलनों में उन्हें सुनना भी एक सुंदर अनुभव था। वह अपने निराले अन्दाज़ में कविता पढ़ते थे और उनके शब्द सीधे दिल में उतर जाते थे। नीरज के गीत दर्द और प्रेम की अनोखी चाशनी में डूबे हुए हैं, इसलिए हर किसी के दिल को छू जाते हैं। उनके भीतर शब्दों और भावनाओं का एक अनंत सागर बहता है, तभी तो वह कहते हैं :
विश्व चाहे या न चाहे,
लोग समझें या न समझें,
आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे।
हर नज़र ग़मगीन है, हर होंठ ने धूनी रमाई,
हर गली वीरान जैसे हो कि बेवा की कलाई,
ख़ुदकुशी कर मर रही है रोशनी तब आँगनों में
कर रहा है आदमी जब चाँद-तारों पर चढ़ाई,
फिर दियों का दम न टूटे,
फिर किरण को तम न लूटे,
हम जले हैं तो धरा को जगमगा कर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे...
उनकी कविताओं में प्रेम के साथ भक्ति और दर्द के साथ समष्टि चेतना भी झलकती है, वह कहते हैं: “सगुण भक्ति के रूप में जो अवतारवाद है, मेरी समझ में अपने मूल रूप में वह मानववाद या प्रेमवाद ही है।प्रत्येक व्यक्तिगत प्रेम की परिणति स्दैव ही ईश्वर प्रेम या विश्वप्रेम में होती है।”
तभी वह कह उठते हैं :
खोजता ही फिरा पर अभी तक मुझे
मिल सका कुछ न तेरा ठिकाना कहीं
ज्ञान से बात की तो कहा बुद्धि ने
सत्य है वह, मगर आज़माना नहीं
धर्म के पास पहुँचा पता यह चला
मंदिरों मस्जिदों में अभी बंद है
जोगियों ने बताया कि जपजोग है
भोगियों से सुना भोग आनंद है
किंतु पूछा गया नाम जब प्रेम से
धूल से लिपट फूट कर रो पड़ा
बस तभी से व्यथा देख संसार की
आँख मेरी छलकती रही उम्र भर
एक तेरे बिना प्राण ! ओ प्राण के
सांस मेरी सिसकती रही उम्र भर ।।
एक जगह वह स्वयं को एक मस्तमौला फ़क़ीर जानकर कह उठते हैं :
हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे।
जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे।
रामघाट पर सुबह गुजारी
प्रेमघाट पर रात कटी
बिना छावनी बिना छपरिया
अपनी हर बरसात कटी
देखे कितने महल दुमहले, उनमें ठहरा तो समझा
कोई घर हो, भीतर से तो हर घर है वीराना रे।
बीसवीं सदी के लोकप्रिय गीतकारों में से एक ‘गोपालदास नीरज’ आधुनिक कवियों में अपना एक अग्रणी स्थान रखते हैं। वह हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में गीत लिख सकते थे।
मेरा हर शेर है अक्सर मेरी ज़िंदा तस्वीर
देखने वालों ने देखा है हर लफ्ज में मुझे
उनका जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के ‘पुरावली गांव’ में हुआ था। पिता ‘श्री ब्रजकिशोर’ जमींदार थे किंतु बाद में नौकरी करने लगे। माँ ‘श्रीमती सुखदेवी’ एक गृहणी थीं। जब वह मात्र छह वर्ष के थे, पिता का आकस्मिक निधन हो गया। इस कारण अपना घर छोड़कर उन्हें बुआ के घर रहने जाना पड़ा। वह 11 वर्षों तक अपने परिवार से दूर रहे। बचपन अभावों में बीता, वह मीलों पैदल चलकर स्कूल जाते। मिट्टी का घर था, लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की। फ़ीस माफ़ थी, पर एक बार एक नंबर से फेल हो गये, सो स्कॉलरशिप बंद हो गयी। अध्यापक से विनती की पर उसने मन लगाकर पढ़ाई करने की प्रेरणा दी। वर्ष 1942 में प्रथम श्रेणी में एटा से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। काव्य सृजन का बीज यहीं पड़ चुका था।वह स्वयं कहते हैं, मेरे ऊपर उत्तरदायित्वों का इतना बड़ा पहाड़ था कि यदि गाकर अपने बोझ को हल्का नहीं करता तो टूट गया होता। अपने जीवन के सूनेपन को भरने के लिए उन्होंने काव्य सृजन आरंभ किया।
“भीतर-भीतर आग भरी है
बाहर-बाहर पानी है
तेरी-मेरी, मेरी-तेरी
सबकी यही कहानी है”
आरंभ में हरिवंश राय बच्चन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में 1941में पहली कविता पढ़ी। जिगर मुरादाबादी के साथ 1942 में दूसरी बार मौक़ा मिला। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया, हथियार चलाना सीखा। जेल की हवा भी खायी। बारहवीं पास करने के बाद सरकारी नौकरी मिल गयी थी पर कार्यालय में चल रहे भ्रष्टाचार के कारण छोड़ दी।
मेरे घर कोई ख़ुशी आती तो कैसे आती
उम्र भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह
परिवार की सहायता के लिए अगले सात वर्षों तक टाइपिस्ट के काम के अतिरिक्त कई काम किए, फिर आगे की पढ़ाई शुरू की। बी.ए की पढ़ाई के दौरान उनका विवाह सुश्री ‘सावित्रीदेवी’ से हुआ। नौकरी करते हुए वर्ष 1953 में कानपुर में हिंदी साहित्य से एम.ए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और अध्यापन कार्य से संबद्ध हुए। इस बीच कवि सम्मेलनों में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। 1956 में लिखा उनका प्रसिद्ध गीत ‘स्वप्न झरे’ रेडियो पर प्रसारित हुआ, जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसी लोकप्रियता के कारण कालांतर में उन्हें बंबई से गीत लिखने का प्रस्ताव मिला और फिर यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। वह वहाँ भी अत्यंत लोकप्रिय गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्हें तीन बार फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। कुछ वर्षों के बाद वह अलीगढ़ वापस लौट आए, वहाँ के एक कॉलेज में उन्हें नौकरी मिल गई।
उनका पहला काव्य-संग्रह ‘संघर्ष’ 1944 में प्रकाशित हुआ था। अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत, दर्द दिया है, बादल बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नीरज की पाती, गीत भी अगीत भी, आसावरी, नदी किनारे, कारवाँ गुज़र गया, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिए आदि उनके प्रमुख काव्य और गीत-संग्रह हैं।उन्हें हिंदी साहित्य जगत में बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है।कई दशकों तक विभिन्न विषयों पर, नयी विधाओं में नई-नई रचनाएँ लिखते रहने के कारण उनकी काव्य साधना निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होती रही। मानवतावाद उनके काव्य की विशेषता रही है। उन्होंने मानव और मानवता से प्रेम किया।
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए
आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए
वह विश्व उर्दू परिषद पुरस्कार और यश भारती से सम्मानित किए गए थे। भारत सरकार ने उन्हें 1991 में पदम् श्री और 2007 में पद्म भूषण से अलंकृत किया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया था। कहा जाता है, कवि सम्मेलनों में उनकी प्रसिद्धि का आलम ये था कि लोग उन्हें सुनने के लिए पूरी-पूरी रात बैठे रहते थे. नीरज ने लगभग सात दशक तक कवि सम्मेलनों में बादशाहत की. हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे कवियों के दौर में उन्होंने अपनी अलग पहचान स्थापित की. नीरज के गीत और कविताएं धीरे-धीरे लोगों के मन में घर बनाती गईं और उनका जलवा आज भी कायम है। नीरज गीतों के राजकुमार और छंदों के बादशाह बन गए। निराला, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुवेदी, सुमित्रानंदन पंत, शिव मंगल सिंह सुमन, कैफ़ी आज़मी, काका हाथरसी और रहनारायण बिसारिया के साथ उन्होंने मंच साझा किया। समुंदर पार भी नीरज के गीतों का व उनके विशिष्ट गायन का जादू चल रहा था। हिन्दी कविता के सिरमौर नीरज के चाहने वाले सारी दुनिया में मिल जाएँगे। नीरज ने एक से बढ़कर एक प्रेम गीत लिखे।
“मुझे सुन तो सकोगे समझ न पाओगे
मेरी आवाज़ है कान्हा की बंसरी की तरह”
“आदमी को आदमी बनने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और लिखने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं आँखों वाला पानी चाहिए”
नीरज के भीतर एक रेगिस्तान भी था, जिसे एक बूँद चाहिए थी। उनके भीतर से विरह गीतों का एक झरना फूटता रहा। एक तरफ़ जीवन की कठिनाई और दूसरी तरफ़ नीरज के सरल शब्द।
कहानी बन कर जिए हैं इस जमाने में
सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में
आज भी होती है दुनिया पागल
जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में
जीवन के हर रंग को जीने और प्रेम करने वाले नीरज ने ‘मृत्यु गीत’ भी लिखा था। वह कहते हैं, जीवन और मृत्यु का चक्र निरंतर चलता रहता है :
“मित्रों ! हर पल को जियो, अंतिम पल ही मान
अंतिम पल है कौन सा, कौन सका है जान”
धर्म के नाम पर दुकाने चलाने वालों को वह कहते हैं :
भूखी धरती अब भूख मिटाने आती है !
छुपते जाते हैँ सूरज, चांद-सितारे सब
मुरदा मिट्टी अम्बर पर चढ़ती जाती है
हो सावधान ! सँभलो ओ ताज-तख्तवालो !
भूखी धरती अब भूख मिटाने आती है।
काव्य और कवि के बारे में नीरज कहते हैं :
“आत्मा के सौंदर्य का शुद्ध रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य”
उनके शब्दों में - “कुछ पिछले जन्म का संचित रहा होगा कि कवि हो गया। मेरे गीतों की लोकप्रियता का कारण है उनकी निर्झर सी अबाध गति और स्वाभाविक भाषा में गुँथी हुई स्वाभाविक अनुभूति !”
यूँ तो उन्होंने बहुत लिखा, पर उनके अनुसार :
कहते-कहते थके कल्प, युग, वर्ष, मास, दिन,
पर जीवन की राम-कहानी अभी शेष है।
सौ-सौ बार उठा जुड़कर सपनों का मेला,
सौ-सौ बार गया मंज़िल तक प्राण अकेला,
बूँद-बूँद घन हुए हज़ारों बार नयन के,
ढहे करोडों बार महल चाँदी-कंचन के
पर है यह इन्सान कि फिर भी जिसके मन में
नीड़ बसाने की नादानी अभी शेष है!
नीरज का जीवन दर्शन भी उनके शब्दों की तरह अति सरल है, वह कहते हैं पारस का स्पर्श पाकर लोहा सोना हो जाता है, वैसे ही रोमानी कविता का स्पर्श पाकर नीरस दर्शन सरस हो जाता है।
जितना कम समान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा
उससे मिलना नामुमकिन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा ।
जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा
जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं
मुश्किल में इंसान रहेगा ।
जीवन की क्षण भंगुरता को देख कर वह कह उठते हैं :
“सिर्फ़ बिछुड़ने के लिए है यह मेल-मिलाप
एक मुसाफ़िर हम यहाँ एक मुसाफ़िर आप”
उनके अनुसार राजनीति आत्मा का निर्माण नहीं कर सकती। जब देश की आत्मा ही शेष नहीं है, विकास अर्थहीन है। देह कितनी भी सुंदर हो, क्या होता है ? मनु स्मृति में कहा गया है। हर मनुष्य जन्म से शूद्र होता है। जो द्विज है, वही ब्राह्मण है।दूसरी बार अपने गर्भ से जन्म लेना पड़ता है; जब ख़ुद से परिचय होता है।आदमी डर के मारे अपने पास बैठता नहीं है। धर्म का प्रथम और अंतिम सूत्र अपने आप से परिचय और मुलाक़ात करना है।
ज़िंदगी भर तो हुई गुफ़्तगू ग़ैरों से मगर
आज तक हमसे हमारी न मुलाक़ात हुई
कवि के अनुसार कविता मूल्यों की स्थापना के लिए होती है। जीवन संग्राम में वह एक साहसी योद्धा की तरह जूझते रहे। जीवन के कटु संघर्ष के मध्य उनकी कविता पुष्पित हुई है। उनके शब्दों में अनोखा ओज और प्रवाह है।
‘जो हरेक शख़्स को अपनी ही नज़र आती है
वह ग़ज़ल आँखों के पानी से लिखी जाती है’
“लेखनी आंसुओं की स्याही में डुबाकर लिखो
दर्द को प्यार से सिरहाने बिठाकर रखो।
जिंदगी कमरों-किताबों में नहीं मिलती
धूप में जाओ पसीने में नहाकर देखो।”
नीरज का काव्य दीपक के समान दुखी मानवता का मार्गदर्शन करता है :
“अंधियारा जिससे शर्माये
उजियाला जिसको ललचाये
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये”
कवि का कहना है - वही साहित्य श्रेष्ठ साहित्य है, जो हमें हमारे व्यक्तित्व के संकुचित घेरे से निकालकर अधिक से अधिक विश्व तथा मानवता के निकट ले जाता है। प्रत्येक व्यक्तिगत प्रेम की परिणति आख़िर विश्वप्रेम में होती है। उन्होंने जटिल से जटिल विषय को अपनी सरल भाषा में गाया है। हिन्दी कविता को जन-जन तक पहुँचाने और राष्ट्रभाषा के प्रचार में अपना योगदान दिया है। उनकी कविताओं का अनुवाद अन्य कई भाषाओं में हुआ है। एक सहज मानवतावादी स्वर, मस्ती और फक्कड़पन साथ ही प्रणय के कई रंग उनकी कविताओं में मिलते हैं। उनकी कविता हिन्दी जगत की एक अनमोल धरोहर है।
कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।
मैं न बँधा हूँ देश काल की जंग लगी जंजीर में
मैं न खड़ा हूँ जाति−पाति की ऊँची−नीची भीड़ में
मेरा धर्म न कुछ स्याही−शब्दों का सिर्फ गुलाम है
मैं बस कहता हूँ कि प्यार है तो घट−घट में राम है
मुझ से तुम न कहो कि मंदिर−मस्जिद पर मैं सर टेक दूँ
मेरा तो आराध्य आदमी− देवालय हर द्वार है
कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है ।
Thanks to update good post https://goswamirishta.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंनीरज के समग्र को प्रस्तुत करती बेहतरीन पोस्ट 👍
जवाब देंहटाएंसमग्रता के साथ "नीरज जी"के गीतों और उनके व्यक्तित्व को प्रस्तुत करती आपकी बेहतरीन रचना सादर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अभिलाषा जी !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार आलोक जी !
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमैंने कवि नीरज के 1-2 गीत सुने थे, पर यह खज़ाना आज आपके कारण ही पाया। बहुत आभार इस लेख को लिखने के लिए!
जवाब देंहटाएंआप जैसे पाठकगण के लिए नीरज कर लिख गये हैं, स्वागत व आभार !
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