कल की बातें रहने ही दो
जिसमें ठहरा जा सकता है
वह केवल यह पल है मितवा,
कल की बातें रहने ही दो
कल किसने देखा है मितवा !
आगा-पीछा सोच-सोच के
मन के हाल बुरे कर आये,
शगुन-अपशगुन के फेरे में
मोती से कई दिन गँवाये !
मन का क्या है, आज चाहता
कल उसको ख़ारिज कर देता,
छोड़ो इसकी चाहत, ख्वाहिश
हर पल का तुम रस पी लेना !
चिड़िया, बादल, दूब, पवन पर
स्नेह भरी एक दृष्टि डालो,
कैसे हो जाता है अपना
जग को अपना मीत बना लो !
सकारात्मक भावों से सजी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति । जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि यही तो एकमात्र सत्य है न।
जवाब देंहटाएंसस्नेह
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह ! कितनी मीठी, सरल और प्यारी रचना है! जग को ऐसी कविताएँ और चाहिए! दोस्तों के साथ सांझी करने लायक कविता है यह!
जवाब देंहटाएंसुंदर सकारात्मक प्रतिक्रिया हेतु आभार !
हटाएंवाह ... आशा और उम्मीद तो आज में ही है और इसी में जिया कैसे जाए इसको बाखूबी आप लिख देती हैं ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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