अँधेरे के पार
प्रकाश की एक दूधिया नदी
बहती है भीतर
जिसका कोई तट नजर नहीं आता
एक अंतहीन सन्नाटे की गूँज
जिसकी लहरों में सुनाई देती है
अदृश्य कमलों की गंध भी चली आती है
खो जाते हैं स्पंदन.. और
जम जाता है शिराओं में बहता रक्त
थम जाता है ज्यों सृष्टि का सारा व्यापार
एक
मधुर रस टपकता है
दिग दिगंत से
सहेजते हैं अदेखे हाथ
महसूस होती है छुअन बन परस
नृत्य घटता है कहीं गहराइयों में
नजर नहीं आता पर कोई नर्तक !
कैसे अती न्द्रिय बोध - जैसे गूँगे का गुड़!
जवाब देंहटाएंसही कहा है प्रतिभाजी
हटाएंबहुत गहराई हैं भाव में
जवाब देंहटाएंबार बार पढ़ा क्र ही समझ आई कविता
शुभकामनाए
स्वागत व आभार जफ़र जी !
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