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शनिवार, फ़रवरी 20

जो बरसती है अकारण

जो बरसती है अकारण 


छू रहा है मखमली सा 

परस कोई इक अनूठा, 

बह रहा ज्यों इक समुन्दर

 आए नजर बस छोर ना !


काँपते से गात के कण 

लगन सिहरन भर रही हो, 

कोई सरिता स्वर्ग से ज्यों 

हौले-हौले झर रही हो  !


एक मदहोशी है ऐसी 

होश में जो ले के आती, 

नाम उसका कौन जाने 

कौन जो करुणा बहाती !


बह रही वह पुण्य सलिला  

मेघ बनकर छा रही है, 

मूक स्वर में कोई मनहर 

धुन कहीं गुंजा रही है !


शब्द कैसे कह सकेंगे 

राज उस अनजान शै का, 

जो बरसती है अकारण 

हर पीर भर सुर प्रीत का !


सुरति जिसकी है सुकोमल 

पुलक कोई है अजानी 

चाँदनी ज्यों झर रही हो 

एक स्पंदन इक रवानी 


बिन कहे कुछ सब कहे जो 

बिन मिले ही कंप भर दे, 

सार है जो प्रीत का वह 

दिव्यता की ज्योति भर दे !

 

बुधवार, मई 6

लॉक डाउन में ढील

लॉक डाउन में ढील


ग्रीन, रेड और ऑरेंज जोंस में 
अब  बंट गए हैं लोग 
लगता है, विभाजन ही मानव की नियति है 
ग्रीन में आजादी अधिक है 
जिंदगी पूर्ववत होने का आभास दे रही है 
अति उत्साह में लोग भूल जाते हैं 
चेहरे पर मास्क लगाना 
और दो गज की दूरी बनाये रखना 
वे इस तरह बाहर निकल आये हैं 
जैसे पिंजरों से पंछी 
सब्जी-फल की दुकानों से ज्यादा 
लगी हैं लंबी-लंबी कतारें 
उन दुकानों पर, 
जहाँ मस्ती और चैन के नाम पर 
जहर बिकता है 
पर नशे का व्यसन उन्हें विवश करता है 
अथवा वे डूब जाना चाहते हैं 
जीवन की वास्तविकताओं को भुलाकर 
किसी ऐसे लोक में 
जहाँ न नौकरी जाने का गम है 
न कोरोना से ग्रस्त हो जाने का 
वे चैन की नींद सो सकेंगे चंद घण्टे शायद बेहोशी में 
काश ! कोई उन्हें बताये 
एक चैन और भी है, जो बेहोशी में नहीं 
होश में मिलता है 
जिसे पाकर ही दिल का कमल पूरी तरह खिलता है 
जहाँ टूट जाती हैं सारी सीमाएं 
मन उलझनों से पार... खुद से भी दूर लगता है 
यह अनोखा नशा ध्यान का 
ऊर्जा से भरता है 
और यह बिन मोल ही मिलता है !


गुरुवार, अप्रैल 9

नींद


नींद 


कल रात फिर नींद नहीं आयी 
नींद आती है चुपचाप 
दबे पावों... और कब छा जाती है 
पता ही नहीं लगने देती 
कई बार सोचा 
नींद से हो मुलाकात 
कुछ करें उससे दिल की बात 
प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा थी 
उसके आने की कहीं दूर-दूर तक आहट नहीं थी 
नींद आने से पहले ही होश को सुला देती है 
स्वप्नों में खुद को भुला देती है 
कभी पलक मूँदते ही छा जाती है खुमारी 
अब जब करते हैं उसके स्वागत की तैयारी
तो वह छल करती है 
वही तो है जो रात भर तन में बल भरती है 
चहुँ ओर दौड़ते मन को चंद घड़ी देती है विश्राम 
जहाँ इच्छाओं का जमावड़ा बना ही रहता है 
कोई न कोई अड़ियल ख्याल खड़ा ही रहता है 
जहाँ विचारों के हवा-महल बनते बिगड़ते हैं 
पल में ही मन के उपवन खिलते-उजड़ते हैं 
नींद की देवी चंद घड़ियां अपनी छाया में पनाह देती है 
पर कल रात वह रुष्ट थी क्या 
जो भटके मन को घर लौटने की राह देती है ! 


शनिवार, नवंबर 23

जिंदगी


जिंदगी 


जिस घड़ी आ जाये होश जिंदगी से रूबरू हों
एक पल में ठहर कर फिर  झांक लें खुद के नयन में
बह रही जो खिलखिलाती गुनगुनाती धार नदिया
चंद बूंदें ही उड़ेलें उस जहाँ की झलक पालें

क्या यहाँ करना क्या पाना यह सिखावन चल रही है 
बस जरा हम जाग देखें और अपने कान धर लें
नहीं चाहे सदा देती नेमतें अपनी लुटाती
चेत कर इतना तो हो कि फ़टे दामन ही सिला लें

पूर्णता की चाह जागे मनस से हर राह मिलती
ला दिया जिसने सवेरा रात जिससे रोज खिलती
उस भली सी इक ललक को धूप, पानी, खाद दे दें
जो कभी बुझती नहीं है वह नशीली आग भर लें

सोमवार, नवंबर 4

ख्वाब और हकीकत


ख्वाब और हकीकत 

कौन सपने दिखाए जाता है
नींद गहरी सुलाए जाता है

होश आने को था घड़ी भर जब
सुखद करवट दिलाए जाता है

मिली ठोकर ही जिस जमाने से
नाज उसके उठाए जाता है

गिन के सांसे मिलीं, सुना भी है
रोज हीरे गंवाए जाता है

पसरा है दूर तलक सन्नाटा
हाल फिर भी बताए जाता है

कोई दूजा नहीं सिवा तेरे
पीर किसको सुनाए जाता है

टूट कर बिखरे, चुभी किरचें भी
ख्वाब यूँही सजाए जाता है

शुक्रवार, अक्टूबर 13

जिन्दगी हर पल बुलाती



जिन्दगी हर पल बुलाती

किस कदर भटके हुए से
राह भूले चल रहे हम,
होश खोया बेखुदी में
लुगदियों से गल रहे हम !

रौशनी थी, था उजाला
पर अंधेरों में भटकते,
जिन्दगी हर पल बुलाती
अनसुनी हर बार करते !

चाहतों के जाल में ही
घिरा सा मन बुने सपना,
पा लिये जो पल सुकूं के
नहीं जाना मोल उनका !

दर्द का सामां खरीदा
ख़ुशी की चूनर ओढ़ाई,
विमल सरिता बह रही थी
पोखरी ही उर समाई !

भेद जाने कौन इसका
बात जो पूरी खुली है,  
मन को ही मंजिल समझते
आत्मा सबको मिली है !


गुरुवार, जून 15

सरस बना पल-पल आ डोले

सरस बना पल-पल आ डोले


सुख आशा में जाने कितने
दुःख के बीज गिराए पथ में,
जिन्हें खोलने के गुर सीखें
बाँधे बंधन निज हाथों से !

एक बूंद भी विष की जग में
जीवन हर लेने में सक्षम,
धूमिल सी भी कोइ कामना
ढक देती अंतर का दर्पण !

यहाँ लगा बाजार चाह का
होश कहाँ से जगे हृदय में,
फूलों से जो सज सकता था
कंटक उगते मार्ग प्रणय में !

प्रथम कदम को दिशा मिले गर
खुदबखुद राहें खुलीं, गातीं,
सरस बना पल-पल आ डोले
जन्मों की अकुलाहट जाती !


सोमवार, मई 21

अब सहज उड़ान भरेगा मन



अब सहज उड़ान भरेगा मन


अब वह भी याद नहीं आता
अब मस्ती को ही ओढ़ा है,
अब सहज उड़ान भरेगा मन
जब से इसने घर छोड़ा है !

वह घर जो बना था चाहों से
कुछ दर्दों से, कुछ आहों से,
अब नया-नया सा हर पल है
अब रस्तों को ही मोड़ा है !

हर क्षण मरना ही जीवन है
गिन ली दिल की हर धड़कन है,
पल में ही पाया है अनंत
अब हर बंधन को तोड़ा है !

अब कदमों में नव जोश भरा
अब स्वप्नों में भी होश भरा,
अंतर से अलस, प्रमाद झरा
अब मंजिल को मुख मोड़ा है !



सोमवार, नवंबर 21

पार वह उतर गया


पार वह उतर गया


दर्पण सा मन हुआ
गगन भीतर झर गया

सहज सिद्ध प्रेम यहाँ
होश भीतर भर गया

हो सजग जो भी तिरा
पार वह उतर गया

पाप-पुण्य खो गए
वर्तमान हर गया

दिख रहा भ्रम ही है
भाव कोई भर गया

रिक्तता ही जग में है
व्यर्थ मन डर गया

मन जुड़ा जब झूठ से
सत्य फिर गुजर गया

पंचभूतों का प्रपंच
बोध चकित कर गया

सत्य है बहुमुखी
नव आयाम धर गया

मस्त हुई आत्मा
प्रीत कोई कर गया

डूबा जो वह तर गया
बच रहा वह मर गया