सोमवार, अगस्त 4

दर्पण सा खाली रहता है



दर्पण सा खाली रहता है



शब्द कहाँ वह कह पाएंगे
हर पल जो अस्तित्व गा रहा,
पत्ता-पत्ता, कण-कण भू का
भर-भर जो भी दिए जा रहा !

अंकुर फूटा कोख धरा की
देखो कैसे बढ़ता पादप,
माटी रूप बदलती कितने
रस, गंध की झरती गागर !

दर्पण सा खाली रहता है
लाखों रूप नाम गढ़ जाता,
जीवन रस प्रतिक्षण बहता है
कभी स्रोत न होता रीता !

उसी मौन में जग जाये जो
हर सलीब उतर जाती है,
किरणों के संग जगता सोता
नव चन्द्रिमाँ झर जाती है !



7 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन रस प्रतिक्षण बहता है
    कभी स्रोत न होता रीता !
    यही तो सच्चा जीवन राग है … बहुत सुन्दर रचना …आभार

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  2. बहुत सुन्दे भाव सम्प्रेषन |

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  3. सुंदर रचना, मंगलकामनाएं आपको !

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  4. रविकर जी, मनोज जी, संध्या जी, आशा जी, व सतीश जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. वाह ! बहुत ही सुन्दर रचना ! सार्थक सृजन के लिए अनंत शुभकामनाएं !

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