रविवार, अगस्त 3

एक लहर शिव व सुंदर की


एक लहर शिव व सुंदर की


स्पृहा सदा सताती मन को
बढ़ जाता तब उर का स्पंदन,
सदानीरा सी मन की धारा
कभी न लेने देती रंजन !

संपोषिका प्रीत अंतर की
खो जाती हर पीड़ा जिसमें,
एक लहर शिव व सुंदर की
भर जाती थिरकन उर में !

मिटे स्पृहा प्रीत जगे जब
मुक्त खिलेगा अंतर उपवन,
सत्य साक्षी होगा जिस पल
सहज छंटेगा तिमिर का अंजन ! 

8 टिप्‍पणियां:

  1. आशीष जी, मनोज जी, सुमन जी, प्रतिभा जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  2. बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  3. वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

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