हम किधर जा रहे हैं
कितना बौना हो गया है समाज
‘आदि पुरुष’ इसकी बानगी है
बन गये हैं शास्त्र
मनोरंजन का साधन
छा गये हैं महानायकों के चरित्र पर
कॉमिक्स और विदेशी कार्टून
प्रबल हो गया है अंधकार का साम्राज्य
अतीत का गौरव भुला देना चाहते हैं हम
ताकि कोई उसे पुन: जीवित न कर सके
शायद इसीलिए उसे विद्रूप भी कर रहे हैं
जहां विमान था ऐश्वर्य का प्रतीक
अब पशु प्रबल हो गया है
जीवन का यह आधुनिक रूप है
यहाँ भाषा की गरिमा नहीं रही
हर मर्यादा टूट गई
संस्कृति की रक्षा का दम भरने वाले ही
आज उसके हंता नज़र आ रहे हैं
पता नहीं कैसा है यह काल
और हम किधर जा रहे हैं ?
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंआप ने लिखा.....
जवाब देंहटाएंहमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 25/06/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
बहुत बहुत आभार कुलदीप जी!
जवाब देंहटाएंऔर इस दुकानदारी में एक प्रबुद्ध कवि का विशेष हाथ है।अपने फायदे के लिए किस कदर गिर जाते है लोग।सामयिक चिंतन परक रचना के लिए साधुवाद प्रिय अनीता जी 🙏
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रेणु जी!
हटाएं