रविवार, जून 4

नयनों में नित नव साध रहे

नयनों में नित नव साध रहे


मृदु छंद बहा, मकरंद बहा 

जब वे अनजाने हाथ गहे,

जीवन में शुभ सन्तोष जगा 

नयनों में नित नव साध रहे !


लय, ताल, सुगम सध जाते सुर 

जब अनदेखे नाते जुड़ते, 

पंछी, पादप, चाँद,  सूर्य  से 

नेह भरे संदेशे मिलते !


जिसके तट पर मानस ठहरे 

सरिता अंतर में उग आती, 

जन्मों की तृप्ति कराये जो 

अजस्र धारा बहती जाती !


गंध धरा से, रंग गगन से 

सरसिज खिला पंक में कोमल, 

जल से जुड़ी मूल नभ से तन 

पवन झुलाता अम्बुज  श्यामल !


अंतर्कमल  चेतना का जब 

महासरोवर में खिलता है, 

प्रकृति माँ की भरे सुवास उर 

जग से पुलकित हो मिलता है !


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