कोई 
कोई निकट ही नहीं 
बहुत निकट है 
पल-पल देख रहा है
देह की हर शिरा का स्पंदन 
प्राणों का आलोड़न 
मन का सहज आनंद 
झट ‘तथास्तु’ कह कर मुस्का देता है 
और वही देख चुका है 
देह की जड़ता 
प्राणों की आतुरता 
मन का रुदन 
पर तब हामी नहीं भरी थी  
प्रकाश की आस जगायी थी 
सहलाया था अदृश्य हाथों से 
घोर अंधेरों में !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 20 नवंबर को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बहुत बहुत आभार पम्मी जी !
हटाएंकोई बहुत निकट है
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
वंदन
स्वागत व आभार !
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