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शुक्रवार, सितंबर 2

रास्ते हैं, यह बहुत है

रास्ते हैं, यह बहुत है
 

​​मंज़िलें हों दूर कितनीं  

मंज़िलें हैं, यह बहुत है, 

चल पड़े हैं ग़म नहीं अब 

रास्ते हैं, यह बहुत है !


पथ कँटीला पाँव हारे 

जोश दिल में, यह बहुत है, 

नज़र न आए तो क्या है 

साथ है तू, यह बहुत है !


इक अनोखी चीज़ दुनिया 

जश्न मनते, यह बहुत है, 

कब किसी की हुईं पूरी 

चाहतें हैं, यह बहुत है !


उम्र केवल एक गिनती 

बचपन जवाँ, यह बहुत है, 

अजनबी कोई नहीं अब 

तू यहीं है, यह बहुत है !




मंगलवार, दिसंबर 11

रास्ते में फूल भी थे


रास्ते में फूल भी थे


 कंटकों से बच निकलने
में लगा दी शक्ति सारी,
रास्ते में फूल भी थे
बात यह दिल से भुला दी !

उलझनें जब घेरती थीं
सुलझ जायें प्रार्थना की,
किन्तु खुद ही तो रखा था
चाहतों का बोझ भारी !

नींद सुख की जब मिली थी
स्वप्न नयनों में भरे खुद,
मंजिलें जब पास ही थीं
थामे कहाँ बढ़ते कदम !

हाथ भर ही दूर था वह
स्वर्ग सा जीवन सलोना,
कब भुला पाया अथिर मन
किन्तु शिखरों का बुलावा !

बुधवार, जून 17

मंजिल और रस्ता


मंजिल और रस्ता 

लगता है यूँ सफर की.. आ गयी हो मंजिल
या यह भी इक ख्याल ही निकलेगा दिलों का

यूँ ही चले थे उम्र भर मंजिल पे खड़े थे
अब लौट के पहुंचे जहाँ वह अपना ही घर था

रस्ते में खो गयी गठरी जो ले चले
राही भी न बचा रस्ता भी खो गया सा 

अब एक ही रहा है चुप सी ही इक लगाये
कहने को कुछ नहीं है यूँ मौन बह गया 

सोमवार, जुलाई 8

अब पुनःरुक्त नहीं होना है

अब पुनःरुक्त नहीं होना है

पूछ रहा है पता ठिकाना
भीतर अपनी याद खो गयी,
उन्हीं रास्तों पर चलता है
खुले नयन, पर दृष्टि सो गयी !

साँझ-सवेरे भी बदलेंगे
बीज अलख का इक बोना है,
सतत् प्रयाण रहे चलता
अब पुनःरुक्त नहीं होना है !

सिंचन प्रतिपल नव कुसुमों का
छिपे हुए जो अभी धरा में,
मानस-भू पाषाण बनी जो  
पिघलेगी ही सघन त्वरा में !

मन से ऊपर, परे भाव से
इक जोगी वाला डेरा है,
वहाँ न श्याम रात का साया
हर पल ही नया सवेरा है !


शुक्रवार, जून 7

एक रास्ता है मन

एक रास्ता है मन

मन मानो भूमि का एक टुकड़ा है
उगाने हैं जहाँ उपवन फूलों भरे
जहाँ बिन उगाये उग आते हैं
खर-पतवार
हो सकता है अनजाने में गिराए हों बीज उनके भी
समय की अंतहीन धारा में  
जिस पर पनपे-उजड़े अनंत बार
कितने पादप कितने वृक्ष
पर अब जब कि पता चल गया है
पता उस खुशबू का
जिसकी जड़ छिपी है मन की ही माटी में कहीं गहरे
तो उपवन सजाना है
उसी को खिलाना है

मन मानो एक मदारी है
जब तक हम उसकी हरकतों पर बजाते हैं तालियाँ
तब तक दिखाता रहता है वह खेल
जिसे मिटाना ही है
उसे बड़ा क्यों करना
जिससे मुक्त होना ही है
उससे मोह क्यों लगाना
जिससे गुजरना भर है
क्यों बनाना उस पथ पर घर
एक रास्ता है मन
जो पार करना है
जब खो जाते हैं सारे अनुभव
तब कोई देखने वाला भी नहीं बचता
नाटक बंद होते ही
घर लौटना होगा
घर आना ही होगा हरेक को
एक यात्रा है मन
जो घर तक ले जाएगी....

गुरुवार, अक्टूबर 11

जीना इसी का नाम है


जीना इसी का नाम है 

अँधेरे कमरे में
बंद आँखों से
खाते हुए ठोकरें
वे चल रहे हैं
और इसे जीना कहते हैं...

बाहर उजाला है
सुंदर रास्ते हैं
वे अनजान हैं
इस शहर में
सो बाहर नहीं निकलते हैं....

जाने क्या आकर्षण
है इस पीड़ा में
कि दुःख को भी
बना लेते हैं साथी
बड़े एहतियात से
बना कर घाव
उस पर मरहम धरते हैं..

पुकारता है अस्तित्त्व
वह प्रतीक्षा रत है
कैसा आश्चर्य है
सीमाओं में बंधा हर मन
फड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
पर द्वार पिंजरे का
खोले जाने पर भी
नहीं जाता बाहर
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं