गुरुवार, जनवरी 5

हर पीड़ा मुदिता से भर दे

हर पीड़ा  मुदिता  से भर दे


मुक्त पिरोया गया माल में 

बिंध मध्य में शून्य हुआ जब,

जा पहुँचा सम्मान बढ़ाने 

देवस्थल की शोभा बन तब !


मन भी मुक्त सघन पीड़ा से 

सीखे  रीता होना खुद से, 

कृष्ण सूत्र में गुँथ जाता है 

एक हुआ फिर सारे जग से !


मुक्ति का यह मार्ग अतुलनीय  

हर पीड़ा मुदिता  से भर दे, 

ज्ञान प्रीत से, प्रीत कर्म से  

सुगम राह पर ला कर धर  दे !


कर्म अर्चना है अकर्म सम

व्यक्त ऊर्जा को होने दे, 

गंगा सी बहती जो निर्मल 

दिव्य भाव भीतर बोने दे  !


चाह मुक्ति की यह अनुपम है 

स्वयं का व जग का हित सधता, 

रिक्त हुआ उर जब भीतर से 

प्रियतम खुद ही आकर बसता  !


मंगलवार, जनवरी 3

नया वर्ष - नए विकल्पों का घोष


नया वर्ष - नए विकल्पों का घोष 

जाते हुए वर्ष के अंतिम दिन और नए वर्ष के प्रथम दिन को प्रकृति के सान्निध्य में बिताने की परंपरा कब और कैसे आरम्भ हो गयी, यह तो याद नहीं पर पतिदेव की सेवा निवृत्ति से पूर्व की यह रीति कोरोना का एक वर्ष छोड़ दें तो पिछले तीन वर्षों से बखूबी चल रही है। इस वर्ष भी तीन महीने पहले ही पुत्र व पुत्रवधू ने ईको नेटिव विलेज नामक एक रिज़ॉर्ट में दो कमरे आरक्षित करवा दिए थे। अतः २०२२ का अंतिम दिवस और २०२३ का प्रथम दिवस पंछियों, वृक्षों और सूर्यास्त व सूर्योदय निहारते हुए बिताया। बंगलूरू की भीड़भाड़ से दूर गाँव के निकट खेतों-खलिहानों के मध्य दूर तक फैले खुले स्थान पर यह स्थान है। दूर से देखने तो पेड़ों से घिरा है, पर निकट जाकर देखने पर ज्ञात होता है कि अपनी उत्तम वास्तुकला के साथ ​​​​यह आवास शांत वातावरण में स्थित है और सुकून भरे कुछ पल बिताने के लिए एक सुरम्य गांव की पृष्ठभूमि पर बनाया गया है।घूमता हुआ चाक तो पहले कई बार देखा था पर पहली बार एक कुम्हार के सहयोग से चाक चलाने का अवसर मिला, हमने मिट्टी के दो छोटे पात्र बनाए। मिट्टी का कोमल स्पर्श अनोखा था, तेज़ी से घूमते हुए चाक पर अनगढ़ मिट्टी को भीतर व बाहर से सहेजते हुए आकार देना वाक़ई एक सुंदर अनुभव था। इसके बाद बचपन में खेले हुए अनेक खेलों की बारी थी, जिसमें शामिल थे, झूले, लट्टू घुमाना, लकड़ी की सहायता से टायर घुमाना, गुलेल से टंगी हुई टिन की बोतलों पर निशाना, पतंग उड़ाना, लगूरी, बास्केट बॉल, कैरम और भी कई खेल, जिन्हें बच्चे-बड़े मिल कर खेल रहे थे। जो काम वर्षों से नहीं किए होंगे, उन्हें  करके सहज आनंद मिल रहा था, वास्तव में आनंद तो भीतर है ही, उसे व्यक्त होने का अवसर मिल रहा था, वरना घर-बाहर के रोज़मर्रा के कामों में बड़े और पढ़ाई के बोझ तले दबे बच्चे अपने भीतर के उस आनंद से मिल ही नहीं पाते जो उन्हें इन सरल कृत्यों को कर के मिल रहा था। इस ख़ुशी का शायद एक कारण और भी हो सकता है, जीवन में नयापन उत्साह से भर देता है, तो ये सारे खेल जिन्हें आज की पीढ़ी भूल ही गयी है, उसी नवीनता का अनुभव करा रहे थे। जैसे परमात्मा नित नया सृजन करता ही जाता है, वह थकता ही नहीं। हमारे भीतर भी उसी का अंश आत्मा रूप में मौजूद है जो सदा नवीनता का अनुभव करना चाहता है। संभवतः इसीलिए दुनिया भर में लोग नया साल मनाते हैं। 

प्रकृति प्रेमियों के लिए इससे अच्छा क्या होगा कि वर्ष की अंतिम रात्रि को स्वच्छ आकाश में तारों की चमक और चंद्रमा की दमक निहारते हुए बिताया जाए। भोर में पंछियों कि कलरव से नींद खुले और उगते व अस्त होते सूर्यदेव को प्रणाम करने का अवसर मिले। नये  वर्ष का विशेष रात्रिभोज, संगीत, प्रकाश और साज-सज्जा तो सभी के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बना ही हुआ था। यहाँ दो दर्जन से ज़्यादा कमरे हैं और सभी भरे हुए थे। बच्चे, युवा, अधेड़ और वृद्ध सभी आयुवर्ग के लोग आए हुए थे, जिनमें से अधिकतर आपस में शायद पहली और अंतिम बार मिले थे, पर एक आत्मीयता का सहज भाव जग जाना स्वाभाविक था क्योंकि सभी एक ही उद्देश्य के लिए आए थे, अपने जीवन की इस संध्या को यादगार बनाने !

शाम होते ही भोज की तैयारी शुरू हो गयी थी। प्रकाश की झालरें, संगीत और स्वादिष्ट भोजन की सुगंध सबको कार्यक्रम स्थल पर ली आयी। कुछ मेहमानों ने गीत गाए, कुछ बच्चों ने नृत्य किए और जैसे ही घड़ी ने बारह बजाए, प्रांगण पटाखों से गूंज उठा।

अगले दिन सुबह उठे तो विभिन्न पक्षियों की मधुर आवाज़ें सारे वातावरण में गूँज रही थीं। अभी हल्का अंधेरा था, पर रिज़ोर्ट से बाहर निकल कर बाँए कच्चे रास्ते पर चलना आरंभ किया तो धीरे-धीरे प्रकाश फैलने लगा था। आसपास के खेतों व पगडंडी पर श्वेत कोहरा छाया था, पथ के अंत तक हम चलते गए, रास्ते में कुछ फूलों के पेड़ थे। पगडंडी की समाप्ति पर किसी का घर था, या कोई गेस्ट हाउस। वापसी में बाँयी तरफ़ श्वेत कोहरे को भेदती हुई हल्की सी लाल आभा की झलक दिखी; और देखते-देखते नारंगी रंग का सूर्य का गोला श्वेत पृष्ठभूमि पर देदीप्यमान हो उठा। हमने कुछ तस्वीरें उतारीं और कुदरत को निहारते वापस लौट आए। प्रातःराश  के बाद वहाँ से लौटने से पूर्व अंतिम बार पूरे अहाते का एक चक्कर लगाया। कमल कुंड में कलियाँ खिलने लगी थीं। टमाटर, लौकी, फलियाँ, बैंगन, मिर्च, पपीते के पौधे और पेड़ देखे। यहाँ कुछ गाएँ और बत्तखें भी पाली हुई हैं। एक बैल गाड़ी भी खड़ी थी। एक तरह से गाँव का पूरा वातावरण बनाया गया है। 

शहर लौटकर अवतार २ देखने का कार्यक्रम भी पहले से ही तय था। इस फ़िल्म में समुंदर के नीचे की दुनिया का अद्भुत चित्रण किया गया है। पानी की लहरों के साथ नीचे उतरते -तैरते हुए काल्पनिक दुनिया के पात्र वहाँ के जीवों और वनस्पतियों से कैसा आत्मीय संबंध जोड़ लेते हैं, यह देखते ही बनता है। जीवन इतना अद्भुत हो सकता है, एक ओर इसकी कल्पना जहाँ चेतना को ध्यान की ओर ले जाती है, वहीं दूसरी ओर बन्दूकों और बारूद के विस्फोट से विनाश की लीला मानव की लिप्सा के प्रति सजग भी करती है। जेक सली के अनोखे परिवार और विशालकाय मछलियों के दृश्यों को मन में अंकित किए जब हम हॉल से बाहर आए तो सड़क पर ट्रैफ़िक कुछ ज़्यादा ही था। कुशलता से गाड़ी को भीड़ से निकाल कर घर तक पहुँच कर घड़ी देखी तो रात्रि के आठ बज चुके थे। बच्चों ने खाना पहले ही ऑर्डर कर दिया था, जो पहुँच चुका था। इस तरह नए वर्ष का पहला दिन अविस्मरणीय बन गया है और आने वाले पूरे वर्ष के लिए प्रेरणा का एक स्रोत भी; अर्थात अपने रोज़मर्रा के कामों में से कुछ समय निकाल कर  पाँच तत्वों के साथ कुछ समय बिताना, प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध अनुभव करना और परमात्मा के द्वारा मिले परिवार के साथ सहज प्रेम के वरदान को कृतज्ञता के साथ ग्रहण करना !

शनिवार, दिसंबर 31

नए वर्ष की शुभकामनाएँ

नए वर्ष की शुभकामनाएँ 


हम भारत की आवाज़ बनें 

उसकी ऊँची परवाज़ बनें,

नए वर्ष में नए हौसले 

भर उर में नव आग़ाज़ बनें !


कोने-कोने में फहराएँ 

योग-धर्म की ध्वजा पताका, 

युद्ध काल रोकें मानव हित  

मिल प्रगति का खींचें खाका !


नृत्य, कलाएँ, वाद्य हमारे 

उपजे सभी पावन स्रोत से, 

वास्तुकला विश्वकर्मा देव  

औषधियाँ धन्वन्तरि लाए !


पावन कण-कण है भारत का 

सुर ताल दे विद्यादायिनी, 

श्री लक्ष्मी ऐश्वर्य लुटातीं 

वीरता की देवी भवानी !


माँयें हैं मदालसा जैसी 

ब्रह्म ज्ञान पुत्रों को देतीं, 

यहाँ पुत्रियाँ सावित्री सी 

निज वर अपने मत से चुनतीं !


भारत की महान विरासतों 

के संवाहक हम बन जाएँ, 

ज्ञान  और विज्ञान क्षेत्र में 

राह विश्व को यही दिखाए !


सत् के पथ पर चलना होगा 

वरना जीवन अति कठोर है, 

धर्म रीत को चुनना होगा 

अन्यथा भावी अति घोर है !


शुक्रवार, दिसंबर 30

नए तराने गाएँ मिलकर

नए तराने गाएँ मिलकर 


नए वर्ष में आओ ! साथी  

 नए-नए हो जाएँ खिलकर,

नया सृजन हो, नए गीत कुछ 

नए तराने गाएँ मिलकर  !


नए विचारों से महकाएँ, 

आंगन अपने बासी  मन का

नए भाव  से भरें हृदय को, 

दामन ख़ुशियों से  जीवन का !


नई सोच हो, हृदय  मुक्त हो,

 सभी पूर्वाग्रह से अब तो,

नई कोंपलें फूटें उर में, 

नए रास्ते खोजें अब तो !


नए शब्द हों, नए इरादे,

 नया-नया हो क्रम जीवन का,

नई पुलक हो, नव उमंग हो, 

नया राग हो नादाँ मन का !


नए साल में, नए ताल में,

 नया-नया सुर वादन छेड़ें,

नई थाप हो, नई धुनें हों, 

नूतन अंतर प्रीत उलेड़ें !


अब तक सच माना था जिसको,

 परखें उस अपने जीवन को,

जो असत्य हो, झट से तज दें, 

झिझके नहीं हृदय  पल भर को !


गुरुवार, दिसंबर 29

सदा रहे जो

सदा रहे जो 


यहाँ-वहाँ, इधर-उधर 

उलझे हैं जो धागे मन के 

उन्हें समेटें 

बाँधें फिर समता खूँटे से

 डोर तान लें 

आज किसी का सम्बल पाया 

कल जब छलती होगी माया 

सदा रहे जो 

ऐसा इक आधार जान लें 

बाहर जग यह छिटक रहा है 

भीतर से एक द्वार खान लें !

जब निज का यह अंग बनेगा 

भेद कहीं तब कहाँ  रहेगा 

सारे उसके ही प्रतिनिधि  यहाँ 

यही जान बस उन चरणों के  

गा गान लें ! 


मंगलवार, दिसंबर 27

उजियारा मन बाती कारण


उजियारा मन बाती  कारण


देह दीप माटी का जैसे

उजियारा मन बाती  कारण, 

स्नेह प्राण का, ज्योति आत्म की 

जग को किया  उसी ने धारण !


दीपक छोटे, बड़े क़ीमती 

मन भी भिन्न क्षमता की  बात, 

प्राणों में बल घटता-बढ़ता 

किंतु ज्योति है एक दिन-रात !


उसी ज्योति की ओर चले थे 

ऋषि ने जब तमसो गाया था, 

वही ज्योति शुभ मार्ग दिखाती 

महाजनों को जो भाया था !





शनिवार, दिसंबर 24

ज्योति कमल नित नए खिलाता

ज्योति कमल नित नए खिलाता


वह अनंत ही, सांत बना है 

भरमाता खुद को, माया से 

सत्य मान जो, भ्रमित हो गया 

डर जाता है, जो छाया से !


नित  प्रेम जो, मोह में फँसता

सदा शांत, पर द्वेष जगाए 

जीवन विमल अमृत सा बरसे, 

अनजाने में गरल बनाए !


सुख की चाह सदा भरमाती 

खुद से दूर चला जाता है, 

अपने भीतर भर भंडारे 

उर चिर तृषित  छला जाता है !


जो हल्का है लघु तिनके सा 

भारी भीषण हिम पर्वत सा, 

दूर अति नक्षत्र अनंत सा 

श्वासों से भी निकट बसा है !


जिसका होना वही जानता

बिरला कोई  ही लख पाता,

गुनगुन भँवरे सा गाता है 

ज्योति कमल नित नए खिलाता !


शुक्रवार, दिसंबर 23

अरूप

अरूप


वह जो अरूप है भीतर 

अकारण सुख है 

उसकी मुस्कान थिर है 

चिर बसंत छाया रहता है उसके इर्दगिर्द 

अनहद राग बजता है अहर्निश 

जगत से उपराम हुआ 

कोई उस राम से मिलता है 

किसी-किसी के हृदय में 

उसकी चाहत का फूल खिलता है 

प्रपंच से परे वह समाधि में लीन है 

जैसे हिमालय के शिखर पर शिव आसीन है 

आत्मा के अनन्त सागर में उठने वाली लहरों को ही 

निहारते हैं हम 

जो कहीं नहीं जातीं

व्यर्थ ही सिर टकराती हैं 

भँवर उठते हैं कहीं तूफान 

कहीं बहते चले आते हैं फूल 

कहीं बहाया गया उच्छिष्ट 

अनदेखा ही रह जाता है वह अनूप 

वह जो अरूप है भीतर !


बुधवार, दिसंबर 21

कान्हा बंसी किसे सुनाए

कान्हा  बंसी किसे सुनाए


वरदानों से झोली भर दी 

पर हमने क़ीमत कब जानी, 

कितनी बार मिला वह प्रियतम 

किंतु कहाँ सूरत पहचानी !


आस-पास ही डोल रहा है 

जैसे मंद पवन का झोंका, 

कैसे कोई परस जगाए 

बंद अगर है हृदय झरोखा !


रुनझुन का संगीत बज रहा 

पंचम  सुर में कोकिल गाए, 

कानों में है शोर जहाँ का 

कान्हा  बंसी किसे सुनाए !


एक नज़र करुणा से भर के 

दे देती प्रकृति पुण्य प्रतीति, 

राहों के पाहन चुन-चुन कर 

जीवन में मधुरिम रव भरती !


अमर  अनंत धैर्यशाली वह 

हुआ सवेरा जब जागे तब,

आनंद लोक निमंत्रण देता 

लगन लगे मीरा वाली जब !




मंगलवार, दिसंबर 20

तुम किससे भाग रहे हो

    

 


तुम किससे भाग रहे हो 

तुम किससे भाग रहे हो 

और किसकी ओर भाग रहे हो 

सच से भाग रहे हो 

तो अंतत: सच तुम्हें ढूँढ ही लेगा 

मृत्यु से भागता है आदमी 

पर उसके और मृत्यु के मध्य

फ़ासला निरंतर कम होता है 

जरा से भागता है युवा बना रहने को पर उसके 

कदम बुढ़ापे की आहट ही फैलाते हैं 

यश  से भागता हुआ व्यक्ति 

सम्मानित किया जाता है 

अपमान से भयभीत ही शिकार होता है अपमान का 

हम जिससे भी दूर जाएँ 

वह हमें छोड़ता नहीं  

क्योंकि उसका सिरा

हम खुद ही थामे रहते हैं 

परमात्मा से भागता हुआ व्यक्ति 

स्वयं को उसी के द्वार पर पाता है 

नास्तिक ही आस्तिक बन जाता  है 

हर बार, क्योंकि ईश्वर दाएँ भी है बाएँ भी 

आगे और पीछे भी 

ऊपर भी नीचे भी 

असम्भव है उससे बचना 

वह घेरे हुए है अब ओर से !


शुक्रवार, दिसंबर 9

चिड़िया और आदमी


चिड़िया और आदमी


चिड़िया भोर में जगती है 

उड़ती है, दाना खोजती है 

दिन भर फुदकती है 

शाम हुए नीड़ में आकर सो जाती है 

दूसरे दिन फिर वही क्रम 

नीले आसमान का उसे भान नहीं 

हरे पेड़ों का उसे भान नहीं 

हवाओं,सूरज, धूप का उसे भान नहीं 

परमात्मा का उसे भान नहीं 

पर वह मस्त है अपने में ही मग्न 

और उधर आदमी 

उठता है चिंता करता है 

चिंता में काम करता है 

चिंता में भोजन खाता है 

चिंता में ही सो जाता है 

उसे भी नीला आकाश दिखायी नहीं देता 

हज़ार नेमतें दिखाई नहीं देतीं 

परिजन व आसपास के लोग दिखाई नहीं देते 

बस स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है 

तब आदमी चिड़िया से भी छोटा लगता है 


मंगलवार, दिसंबर 6

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी 


झांक रहा कोई भीतर से 

भारी पर्दे क्यों लटकाए, 

बाहर अबद्ध  गगन बुलाता 

  पिंजरे में विहग घबराए !


विमुक्त करो मानस शक्ति को 

जो अनंत बन खिलना चाहे, 

संकरे पथ सीली धरा  को 

तज भूमा से मिलना चाहे !


वक्त बीतता जाता है अब 

पल भर भी की ना  देर करो, 

रस्ता दो उर की  नदिया को 

अब सिंधु मिलन की टेर भरो !


पलकों में सुख  स्वपन क़ैद हैं 

हृदय कमल भी सुप्त हैं अभी, 

सुदूर कहीं ज्योति की नगरी 

गहन तिमिर में पड़े हैं सभी !


अब राहों को खुद गढ़ना है 

नियति स्वयं  हाथों में लेकर, 

सोए-सोए युग बीते हैं 

स्वर्णिम पथ पर जाना जगकर !




रविवार, दिसंबर 4

लहरें और सागर



लहरें और सागर


लहर पोषित करती है स्वयं को 

सागर पूर्णकाम है 

लहार  चाह से भरी  है 

सागर  तृप्त  है

लहर दौड़ लगाती है 

शायद दिखाना चाहती है शौर्य तटों को 

सागर के सिवा कोई दूसरा नहीं 

दिखाए भी किसे 

लहर विशिष्ट है 

सागर निर्विशेष 

वह शुद्ध, बुद्ध 

मुक्त, तृप्त और आनंद स्वरूप है 

लहर की नज़र सदा अन्य पर रहती है 

सागर स्वयं में ठहरा है 

जब तक मिला नहीं सागर भीतर 

मन की लहर ही चलाती है 

सुख-दुःख झूले में झुलाती है 

सागर जुड़ा है अस्तित्व से 

लहर दूरियाँ बढ़ाती है 

सदा किसी तलाश में लगी 

कुछ न कुछ पाने की जुगत लगाती 

सागर में होना 

जगत नियंता के चरणों में बैठना है 

लहर से सागर की खोज एक यात्रा है 

 आनंद से भर  सकता है 

इस यात्रा का हर पल

यदि कोई लहर थम जाए 

और जान ले अपना सागर होना

 पल भर के लिए  !