लौट चलें क्यों ना अपने घर
गर तलाश सुकून की
दिल में
भटक-भटक यदि ऊब
गया उर,
राह तके कोई बैठा
है
लौट चलें क्यों
ना अपने घर !
ठोकर ही खायी हो
जिसने
पलकों पर यह उसे
बिठाये,
सदा मुखौटा ही
ओढ़ा हो
सहज सादगी से
देगा भर !
स्वर्ग-नर्क,
सुख-दुःख के सपने
नहीं दिखाता कभी
किसी को,
सौगातें अनमोल
लिए यह
सहज लुटाता
जीवन के स्वर !
नहीं माँगता कीमत
कोई
मोल बिना बिकने
को आकुल
धूल छान ली हो जग
की तो
झुका दें निज
द्वार यह अंतर !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व बालश्रम निषेध दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
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