कौन फूल खिलने से रोके 
बहे न दिल से धार प्रीत की
जाने कितने पाहन रोकें, 
हरियाली उग सकती थी जब 
कौन फूल खिलने से रोके !
सहज स्पंदित भाव क्यों उठते  
तर्कों के तट बांध लिए जब,
घुट कर रह जाती जब करुणा  
कैसे जगे ख़ुशी भीतर तब !
एक बीज धरती में बोते 
बना हजार हमें लौटाती,
इक मुस्कान हृदय से उपजी 
अनगिन दिल के शूल मिटाती !
बहना ही होगा मन को नित 
अंतर का सब प्यार घोलकर, 
भरते रहना होगा घट को 
उस अनाम का नाम बोलकर !
 उसी एक का प्रेम जगत में 
लाखों के अंतर  में झलके,
जो दिल इसमें भीग गया हो 
पा जाता है खुद को उसमें !

 
बहना ही होगा मन को नित
जवाब देंहटाएंअंतर का सब प्यार घोलकर,
भरते रहना होगा घट को
उस अनाम का नाम बोलकर !....बहुत सुंदर!
स्वागत व आभार विश्वमोहन जी !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
हटाएंमन को छूती
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना
स्वागत व आभार ज्योति जी !
हटाएंप्रतीकात्मक शैली में सुंदर भाव सृजन।
जवाब देंहटाएंअभिनव।
बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन आदरणीय दी।
जवाब देंहटाएंकुसुम जी, ओंकार जी व अनीता जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएं