शुक्रवार, अगस्त 21

इच्छा से शुभेच्छा तक

  

इच्छा से शुभेच्छा तक

 


वस्तुओं की इच्छा 

भरमाती है चेतना को, 

व्यक्तियों की, रुलाती है !

सुख की अभिलाषा सुला देती है 

जब समूह की चेतना से 

जुड़ जाती है इच्छा

कुछ भी करवा ले जाती है 

नहीं होता भीड़ के पास मस्तिष्क

एक उन्माद होता है 

मिट जाता है भय

जो कर नहीं सकता था एक

समूह करवा लेता है उससे 

विपरीत इसके

हो यदि इच्छा ज्ञान की 

आनंद व प्रेम की !

शुभ की इच्छा ...जगे भीतर 

वह परम से मिलाती है !

मुक्ति का स्वाद चखाती है 

निर्द्वन्द्व होकर गगन में 

चेतना को उड़ना सिखाती है 

शुभेच्छा ही देवी माँ है 

जो शिव की प्रिया है ! 

 


गुरुवार, अगस्त 20

मोह और प्रेम

 मोह और प्रेम 

 

जहाँ छूट ही जाने वाला है 

सब कुछ एक दिन 

वहाँ कर सकता है मोह 

कोई मदहोश होकर ही

जहां काल चारों ओर

अपने विकराल पंजे फैलाये खड़ा है 

वहाँ संग्रह किसका करें 

जो मृत्यु के बाद भी नहीं मरता 

उसे क्या चाहिए ?

जो छूट ही जायेगा 

उसे कौन सहेजे 

पैरों में क्यों बांधें जंजीरें 

हजार वस्तुओं के संग्रह से 

पंछी को उड़ ही जाना है 

तो क्यों लगन लगायेगा 

पिंजरे से 

चाहे सुवर्ण का ही हो 

पिंजरा तो पिंजरा है 

सुख जोड़ने में नहीं छोड़ने में है 

मुक्त हृदय से हर बन्धन तोड़ने में है 

प्रेम तो स्वभाव है स्वयं का 

वह हर आग में जलने से बच ही जायेगा

जिसे साथ जाना है 

वह किसी भांति  मिटाया न जायेगा  !


बुधवार, अगस्त 19

योग और प्रेम

योग और प्रेम 

 

जानने की इच्छा 

खुद को जानने की 

यदि जानने वाले की इच्छा बन जाये 

अर्थात ज्ञाता यदि स्वयं को जानने की इच्छा करे 

तो जो क्रिया करनी होगी उसे 

वही तो योग है !

 

जानने वाला यदि श्याम हो 

जानने की इच्छा राधा है 

जानने की क्रिया ही तो प्रेम है !

 

श्याम को इच्छा जगी स्वयं को देखे 

वह इच्छा ही राधा है 

वह देखना ही प्रेम है !

 

 शिव को इच्छा जगी सृष्टि करे 

वह इच्छा ही ‘शक्ति’ है 

राधा बने तो स्वयं को देखा 

शक्ति बने तो सृष्टि की 

सृष्टि की रचना भी प्रेम ही है !

 

मंगलवार, अगस्त 18

स्वप्न से जागरण तक

 स्वप्न से जागरण तक 

 

स्वप्न अचेतन गढ़ता है 

 है वह आँख जिससे 

झाँका जा सकता है भविष्य में 

वह दर्पण भी, जिसमें, अनजाना रह गया 

खुद से ही 

मन का वह कोना झलकता है !

स्वप्न कहते हैं हमारी अनकही गाथाएं 

भूली-बिसरी पुरातन कथाएं

जिनकी खुटियाँ अब भी गड़ी हैं 

मन के उस अंधकार में  

जहाँ हम जाते नहीं 

जा सकते नहीं 

या जाना चाहते नहीं 

स्वप्न में उभर आती हैं विवशताएँ 

जिन्हें दूर नहीं कर पाया मन 

वे आशाएं, नहीं कर पाया जिन्हें पूर्ण 

स्वप्न को स्वप्न कहकर भूल जाता 

फिर अगली रात वही प्रपंच रचाता 

स्वप्न में ही जागना होगा 

अन्यथा अतीत से सदा भागना होगा 

स्वप्नों के पार ही खुद से मुलाकात होगी 

फिर स्वयं से स्वयं की कुछ बात होगी ! 

 


सोमवार, अगस्त 17

लॉक और अनलॉक

 लॉक और अनलॉक  

कभी लॉक और कभी अनलॉक में रहते 

बड़े हो रहे हैं जो शिशु 

क्या बदल नहीं जायेंगे 

उनके लिए जीवन मूल्यों के आधार ?

लोगों से न मिलना-जुलना 

दो गज की दूरी बनाकर रखना 

यही होगा सामान्य शिष्टाचार !

दादी-नानी के यहाँ छुट्टियों में  

साथ पूरे कुनबे के बच्चों के 

धमाल करना 

बस कहानियों में ही रह जायेगा

स्कूल, बड़े भाई-बहनों से सुने किस्सों में जीवित 

उनकी दुनिया हो जाएगी क्या 

एक चारदीवारी में सीमित !

 बैठ कमरे में वह नेटफ्लिक्स और हॉटस्टार से 

पढेंगे अतीत का इतिहास 

जब भीड़ में लोग चला करते थे आसपास 

लाखों डुबकी लगाते थे कुम्भ में 

हजारों स्टेडियम में हौसला बढ़ाते थे 

जीवन में उलटफेर हुआ है कितना

इसका असर नई पीढ़ी पर ही पड़ेगा 

कैसी दुनिया हम उन्हें सौंप रहे हैं 

इतिहास इसका इल्जाम क्या हम पर ही नहीं मढ़ेगा !


रविवार, अगस्त 16

सोचे सोच न होवई

 सोचे सोच न होवई

मन बुनता है शब्दों से 

विचारों की टोकरियाँ 

और भरता रहता है सपनों के फूल 

भावों की डोर में पिरो कर 

नादान है .. यह नहीं जानता 

मात्र छाया है यह ! 

शब्दों का आश्रय दूर तक काम नहीं आता 

अपने ही सिर केवल बोझ बढ़ता जाता 

जिस दिन मौन का पात्र होगा 

सुमन स्वतःप्रकटेंगे उसमें 

परम के चरणों पर जो चढ़ेंगे 

जो ‘है’ वही मुखर होगा 

तब जीवन धारा बहेगी निर्द्वन्द्व  

प्रतिबद्धता के तटों के मध्य 

जिसे प्रमाण के लिए तकना नहीं होगा 

न ही अनुमोदन के लिए 

वह स्वयंसिद्धा 

तभी प्रकटेगी जीवन से !


शुक्रवार, अगस्त 14

स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर हार्दिक शुभकामनायें

 देश हमारा 

 

सदा सत्य की राह दिखाता

गीत शांति का रहे सुनाता, 

‘वसुधैव कुटुंबकम’ मानकर 

सदा सभी का सुहित चाहता !

 

देश हमारा आगे बढ़ता 

सुख-समृद्धि के मार्ग खोलता, 

हर आपदा को दे चुनौती 

हँसकर मिलकर उसको सहता !

 

शांति यहाँ का मूलमन्त्र है 

परम अनूठा लोकतंत्र है, 

साथ निभाता सब देशों का 

कोरोना जब विश्व झेलता !

 

लहर तिरंगा यही सुनाए

भारत की संस्कृति फैलाये, 

राम-कृष्ण की पावन धरती    

कण-कण इसका प्रीत सिखाये !

 

हर मन में आह्लाद भरा  है 

आज स्वतन्त्रता दिवस मनाएं, 

महिमामय भविष्य सम्मुख है 

धैर्य से वर्तमान निभाएं !

 


गुरुवार, अगस्त 13

फिर कोरोना देव अवतरित

 फिर कोरोना देव अवतरित 

 

पीला पात डाल से बिछड़ा 

संग पवन के डोले  इत उत,

हम भी बिछुड़े अपने घर से 

पता खोजते गली-गली में !

 

कोई कहता काशी जाना 

काबा की भी राह दिखाता,

गंगा तट पर शिव के डेरे  

कोई महामंत्र ही फेरे !

 

द्वारे -द्वारे भटक रहे थे 

 हुए बंद मंदिर व शिवालय, 

फिर कोरोना देव अवतरित 

बैठे हैं सब घर में कंपित !

 

घर से बिछुड़े घर लौटे हैं 

प्रेम का पाठ सिखायेगा, 

इसकी दीवारों को सजा लें 

घर को ही अब स्वर्ग बना लें !


बुधवार, अगस्त 12

गोकुल बना महकता उर यह

 गोकुल बना महकता उर यह 

 

टूट गए जब ताले मन के 

खुलीं बेड़ियाँ मोह, अहम की, 

गोकुल बना महकता उर यह 

प्रकट भये श्यामा सुंदर भी !

 

वह चितचोर नन्द का लाला 

आनँदघन हरि मुरलीवाला, 

निर्मल मन नवनीत बना जब  

उस घट आकर डाका डाला !

 

प्रेम-विरह दोनों का रसिया 

अविचल भक्ति सुरस बरसाये, 

नित नई चुनौती स्वीकारे 

रास रचाने झट आ जाये !

 

अव्यक्त ब्रह्म पूर्ण व्यक्त हो 

वृन्दावन के श्याम सरीखा, 

चंचल, धीर, योगी व ज्ञानी  

मीत कन्हैया सखा अनोखा !


मंगलवार, अगस्त 11

जीवन होगा टिका पुनःअमिट मुस्कानों पर

 जीवन होगा टिका पुनःअमिट मुस्कानों पर 

  

अपनों के जब घाव लगे हों कोमल मन पर 

टीस उठा करती हो फिर उनमें रह-रह  कर,

कैसे कोई करे भरोसा तब इस जग पर 

खुद से खुद बातें करता है मन यह अक्सर !

 

नहीं अकारण होता कुछ भी इस दुनिया में 

धीमे से फिर मुस्का देता यही सोचकर, 

कोई अपना ही हिसाब था हुआ पूर्ण है  

अब क्या रोना उन बीती बातों को लेकर !

 

मिलीं नेमतें नजर रहे यदि केवल उन पर 

कितने अपने साथ चल रहे जीवन पथ पर, 

चलना होगा मन में ले विश्वास उन्हीं पर 

जीवन होगा टिका पुनःअमिट मुस्कानों पर !


सोमवार, अगस्त 10

मन पंकज बन खिल सकता था !


मन पंकज बन खिल सकता था


 

तन कैदी कोई मन कैदी 

कुछ धन के पीछे भाग रहे, 

तन, मन, धन तो बस साधन हैं 

बिरले ही सुन यह जाग रहे !

 

रोगों का आश्रय बना लिया 

तन मंदिर भी बन सकता था, 

जो मुरझा जाता इक पल में  

मन पंकज बन खिल सकता था ! 

 

यदि दूजों का दुःख दूर करे 

वह धन भी पावन कर देता, 

जो जोड़-जोड़ लख खुश होले  

हृदय परिग्रह से भर लेता !

 

जब  विकल भूख से हों लाखों 

 मृत्यू का तांडव खेल चले, 

क्या सोये रहना तब समुचित 

पीड़ा व दुःख हर उर में पले !

 

मुक्ति का स्वाद चखे स्वयं जो  

औरों को ले उस ओर चले, 

इस रंग बदलती दुनिया में 

कब कहाँ किसी का जोर चले !

 


शुक्रवार, अगस्त 7

हर दिल की यही कहानी है

 हर दिल की यही कहानी है 


कुछ पाना है जग में आकर 

क्या पाना है यह ज्ञात नहीं, 

कुछ भरना है खाली मन में 

क्या भरना है आभास नहीं !

 

जो नाम कमाया व्यर्थ गया 

अब भी अपूर्णता खलती है, 

जो काम सधे पर्याप्त नहीं 

भीतर इच्छाएँ पलती हैं !

 

कर-कर के भी शमशान मिला

ना कर पाए जो पीड़ित है, 

माया मिली न ही राम मिला 

हर दिल की यही कहानी है !

 

था सार्स अभी कोरोना है 

सोयी मानवता जाग उठे, 

निज सुख खातिर दुःख न बांटें 

हर प्राण बचे जो, पाठ पढ़े !

 

क्यों भीतर झाँक नहीं देखा  

वह पूर्ण जहाँ का वासी है, 

वह दूजा न ही पराया है 

निज भाव स्रोत अविनासी है !