बेगानी है हरी दूब भी
मरुथल बियाबान के वासी
फूलों से रहते अनजाने,
बूंद-बूंद को जो तरसे हैं
नदियों से रहते बेगाने !
स्वप्न सरीखे उनको लगते
उपवन, सरवर, झरने, पंछी,
जिसने मीलों रेत ही देखी
बेगानी है हरी दूब भी !
शब्दों में न सत्य समाता
मरुथल से सूने सपाट हैं,
अंतर में बहार न छाती
जब तक न खुलते कपाट हैं !
सम्बन्धों में खुशी छिपी थी
रहे कैद हम निज सीमा में,
एक ऊर्जा का प्रवाह था
रोक दिया है जिसको हमने !
जीवन इक अनंत पर्व है
संबंधों में राज छिपा है,
पहले खुद से, फिर उस रब से
फिर जग से संवाद हुआ है !
अपने अन्दर के हरी दूब से हम ही कितने बेगाने होते हैं..और शब्दों की खुशियाँ जीने में लगे रहते हैं.. कितनी गहराई लिए आपकी रचना होती हैं..
जवाब देंहटाएंजीवन इक अनंत पर्व है
जवाब देंहटाएंसंबंधों में राज छिपा है,
पहले खुद से, फिर उस रब से
फिर जग से संवाद हुआ है !
सबसे पहले खुद से होना ही लाज़मी है......सुन्दर पोस्ट|
जीवन इक अनंत पर्व है
जवाब देंहटाएंसंबंधों में राज छिपा है,
पहले खुद से, फिर उस रब से
फिर जग से संवाद हुआ है !
पूरा जीवन इंसान संबंधों में इसी संवाद को खोजते रहता है,
किन्तु एक बार अपने पर दृष्टि डालते ही
सारे संवाद समाप्त हो जाते हैं...
सम्बन्धों में खुशी छिपी थी
जवाब देंहटाएंरहे कैद हम निज सीमा में,
एक ऊर्जा का प्रवाह था
रोक दिया है जिसको हमने !
संबंधों का अनादर कुंठा को उत्पन्न करता. संवाद स्थापित करना नितांत आवश्यक है. सुंदर प्रस्तुति के लिये बधाई.
सुंदर प्रस्तुति!!
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