पुलक बना वह ही बह निकले
घन गरजे, गरजे पवना भी
बीहड़ वन ज्यों अंधड़ चलते,
सिंधु में लहरों के थपेड़े
अंतर्मन में द्वंद्व घुमड़ते !
बहना चाहे हुलस-हुलस कर
कौन रौकता पाहन बनकर ?
हृदय उमगता ठाठें मारे
टकराता पर कहीं रसातल !
कोष एक से एक छिपे हैं
सागर तल व वसुधा गर्भ में,
प्रकटे कैसे, निज हाथों से
आड़ लगायी सदा गर्व में !
पुलक बना वह ही बह निकले
अनजाने सभी तोड़े बंध,
‘मैं’ का कंटक गड़ा पाँव में
पूर्ण कैसे होगा अनुबन्ध !
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 24 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
गर्व और अहं -यही दो हैं जो सहज नहीं रहने देते.
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, जो सहज है उसे भी जटिल कर देते हैं
हटाएंपुलक बना वह ही बह निकले
जवाब देंहटाएंअनजाने सभी तोड़े बंध,
‘मैं’ का कंटक गड़ा पाँव में
पूर्ण कैसे होगा अनुबन्ध !
आपकी इस लेखनी की आख्या दो शब्दों मे कर पाना, बिलकुल भी आसान नहीं है। एक तो लेखन शैली अत्यंत ही उत्कृष्ट है वहीं संरचना व संकल्पना की दृष्टि से अत्यंत ही विशिष्ट है।
मैं तो आपका नियमित पाठक रहा हूँ, पर आज कुछ लिखने से खुद को रोक न पाया।
ऐसे ही आप प्रेरणा स्त्रोत बने रहें। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया।
आप जैसे सुधी पाठकों की नजर में आकर ही कविता पूर्ण होती है, आभार इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए !
हटाएंवाह
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