दोनों के ही पार मिले वह
देखे राग-रंग दुनिया के
मृग मरीचिका ही सब निकले,
निकट जरा जा छूकर देखा
जैसे इंद्रधनुष हो नभ में !
पीड़ाओं के बीज गिराए
अनजाने या कभी जानकर,
जिस पथ की मंजिल धूमिल है
थके नहीं पग उसे नापकर !
हर मुस्कान छिपाए है कुछ
भीतर कुछ है बाहर है कुछ,
दोनों के ही पार मिले वह
कर देता हर सुख-दुख ना कुछ !
मिलना होगा महाकाल से
केवल बात यही है निश्चित,
शेष सभी स्वप्नों सा मिथ्या
जग में जो भी मिलता सीमित !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 30 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंवाह अप्रतिम सृजन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह!खूबसूरत सृजन 👌👌
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंइंद्रधनुषी छटा बिखेर दिया है । उससे तीसरे की झलक दिखलाने के लिए हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंदेखे राग-रंग दुनिया के
जवाब देंहटाएंमृग मरीचिका ही सब निकले,
निकट जरा जा छूकर देखा
जैसे इंद्रधनुष हो नभ में !
आपकी रचनाओं में दार्शनिकता का तत्व मन को छू जाता है। बहुत सुंदर रचना !!!
मिलना होगा महाकाल से
जवाब देंहटाएंकेवल बात यही है निश्चित,
शेष सभी स्वप्नों सा मिथ्या
जग में जो भी मिलता सीमित !
बस यही तो यथार्थ है सब जानते है फिर भी पता नहीं किस भ्रम में जीते है,सुंदर सृजन ,सादर नमन आपको
सुंदर सृजन ।
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