शब्द ऊर्जा झरे जहाँ से
ज्ञान यहाँ बंधन बन जाता
भोला मन यह समझ न पाता,
तर्कजाल में उलझाऊँ जग
सोच यही, स्वयं फंस जाता !
शब्द ऊर्जा झरे जहाँ से
गहन मौन का सागर वह है
किन्तु न जाना भेद किसी ने
रंग डाला निज ही रंग में !
भावों का ही सर्जन सारा
जिन पर शब्द कुसुम खिलेंगे,
वाणी से जो भी प्रकटेगा
भाग्य का वह लेख बनेंगे !
महिमा मौन की मुनि गा रहा
अच्छा बुरा न कोई बंधन,
उसके पथ में चिर वसन्त है
शब्दों के जो पार गया मन !
एक बार यदि भेद खुला यह
शब्द सुधा तारक बन मिलती
प्रखर ज्योति मेधा की उनमें
उहापोह की मारक बनती !
सुन्दर सृजन। हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार !
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