रह जाता वह मुस्का कर
स्मृतियों के अंबार तले यह
दीवाना सा मन पिसता है,
जन्मों-जन्मों जो बीज गिरे
उन फसलों में अब घिरता है !
दिन भर जतन से साधा इसको
स्वप्नों में सभी भूल गया,
निद्रा देवी के अंचल में
विश्राम मिला ना शूल गया !
दिवस रात्रि यह खेल चल रहा
कोई देखे जाता भीतर,
जिन भूलों पर झुँझलाता उर
बस रह जाता वह मुस्का कर !
लक्ष्य बाहरी लगते धूमिल
यही जागने की बेला है,
चौराहे पर बाट जोहती
मृत्यु, शेष रही नहीं मंजिल !
अब तो द्वार खुले अनंत का
मन में गूँजे बंसी की धुन,
चाहों के जंगल अर्घट हों
रस्ता दें झरनों को पाहन !
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
13/09/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-09-2020) को "सफ़ेदपोशों के नाम बंद लिफ़ाफ़े में क्यों" (चर्चा अंक-3823) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआध्यात्म की और लेे जाता सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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