खुद न जाने जागता मन
स्वप्न रातों को
बुने मन
नींद में कलियाँ
चुने मन,
क्या छिपाए गर्भ
में निज
खुद न जाने जागता
मन !
कौन सा वह लोक
जिसमें
कल्पना के नगर
रचता,
कभी गहरी सी गुहा
में
एक समाधि में
ठहरता !
छोड़ देता जब
सुलगना
इस-उसकी श्लाघा
लेना,
खोल कर खिड़की के
पाट
आसमा को लख
बिलखना !
एक अनगढ़ गीत भीतर
सुगबुगाता सा
पनपता,
एक न जाना सा
रस्ता
सदा कदमों को
बुलाता !
राज कोई खुल न
पाया
खोलने की फिकर
छोड़ी,
कौन गाये नीलवन
में ?
सुनो ! सरगम,
तान, तोड़ी !