खिला-खिला मन उपवन होगा
एक अनेक हुए दिखते हैं
ज्यों सपने की कोई नगरी,
मन ही नद, पर्वत बन जाता
एक चेतना घट-घट बिखरी !
कैसे स्वप्न रात्रि में देखें
कुछ खुद कुछ अज्ञात तय करे,
जीवन में भी यही घट रहा
जगकर देखें कहाँ खो गए !
एक जागरण नित्य प्रातः में
स्वप्नों से जो मुक्ति दिलाए,
परम जागरण ऐसा भी है
जीते जी यह जग खो जाए !
एक तत्व में टिकना हो जब
जीवन तब क्रीडाँगन होगा,
अपने हाथों दुःख कब बोए
खिला-खिला मन उपवन होगा !
जिस क्षण थामी बागडोर निज
सुख-दुःख की ज़ंजीरें टूटीं,
इक ही अनुभव व्यापा मन में
समता उपजी ममता छूटी !