जो बरसती है अकारण
छू रहा है मखमली सा
परस कोई इक अनूठा,
बह रहा ज्यों इक समुन्दर
आए नजर बस छोर ना !
काँपते से गात के कण
लगन सिहरन भर रही हो,
कोई सरिता स्वर्ग से ज्यों
हौले-हौले झर रही हो !
एक मदहोशी है ऐसी
होश में जो ले के आती,
नाम उसका कौन जाने
कौन जो करुणा बहाती !
बह रही वह पुण्य सलिला
मेघ बनकर छा रही है,
मूक स्वर में कोई मनहर
धुन कहीं गुंजा रही है !
शब्द कैसे कह सकेंगे
राज उस अनजान शै का,
जो बरसती है अकारण
हर पीर भर सुर प्रीत का !
सुरति जिसकी है सुकोमल
पुलक कोई है अजानी
चाँदनी ज्यों झर रही हो
एक स्पंदन इक रवानी
बिन कहे कुछ सब कहे जो
बिन मिले ही कंप भर दे,
सार है जो प्रीत का वह
दिव्यता की ज्योति भर दे !
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२१-०२-२०२१) को 'दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ' (चर्चा अंक- ३९८४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर ..
जवाब देंहटाएंवाह , कितनी लय बद्ध रचना ।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुन्दर मनभावन अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंकितना खूबसूरती से आप गंभीर से गंभीर बात को 'मन' तक पहुंंचा देती हैं आप अनीता जी...वाह
जवाब देंहटाएंशब्द कैसे कह सकेंगे
जवाब देंहटाएंराज उस अनजान शै का,
जो बरसती है अकारण
हर पीर भर सुर प्रीत का !
गहरे भावों को समेटती अद्भुत सृजन,सादर नमन अनीता जी
कविता जी, संगीता जी, ऋता जी, अलकनंदा जी व कामिनी जी आप सभी का हृदय से आभार !
जवाब देंहटाएंसच में यहाँ दिव्य अनुभूति होती है । हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रशंसनीय
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