गुरुवार, सितंबर 5

वक्त की चादर


वक्त की चादर


सामने बिछी है वक्त की चादर
अपनी चाहतों के बूटे काढ़ सको
तो काढ़ लो !
क्योंकि वक्त..
मुट्ठी से रेत की तरह
फिसल जायेगा
 और फिर कीमत चुकानी होगी
निज स्वप्नों से !

सुंदर, श्वेत चादर पर
 रंगीन बूटे
हौसला बढ़ाएंगे दूर तक
साथ रहेगी उनकी सुघड़ता
खुशनुमा हो जाएगा  सफर
 रेशमी धागों की सरसराहट से !

 सिमट जाये ये चादर इसके पूर्व
 उकेर दो... अपनी चाहतों के बूटे !



सोमवार, सितंबर 2

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद


जानती हूँ कम पड़ जायेंगे शब्द
नहीं कह पाएंगे उन भावों को
जो उमड़ते रहे हैं भीतर
जाने के बाद तुम्हारे !

एक-एक श्वास जुडी है तुमसे
 इस जीवन से पहले
न जाने कितने जन्मों से
कैसा गहरा नाता है यह
 जो ढूँढ़ निकाला इतने बड़े जहाँ में
टिका है यह जीवन
उस अनकहे प्रेम की भीत पर
जो प्रवाहित होता ही रहता है
तुम्हारे अस्तित्त्व से !

जिसे न देख पायें ये आँखें
इतनी कमजोर नहीं हुईं अभी
मेरा हर कार्य बन जाता है तुम्हारा भी
बिना किसी लिखित अनुबंध के
मेरे होने को अर्थ मिला है
तुम्हारे होने से
ये जो सुविधाओं का अम्बार
 लगाया है तुमने इर्दगिर्द मेरे
गवाही देता है उस अटूट विश्वास की
जो हर उस वक्त भी बहती है तुम्हारे भीतर
जब किसी बात पर हो जाते हो
नाराज तुम यूँही
अब जब कि दूर हो तुम
याद आ रही हैं वे बातें
 जो कही जानी चाहियें थीं
 पर नहीं कही गयीं, क्यों नहीं
इसका जवाब नहीं है मेरे पास
 ऐसा भी नहीं है
पर कहना उसे पुनः होगा तिरस्कार
उस अनवरत गूंजते गीत का
जो बिना बोले फूटता रहता है
तुम्हारे अधरों से
जिसे सुना है मैंने अभी-अभी
झुक झुक जाती है दिल की डाल
तुम्हारे लिए अब
जब कि हो गया है अहसास उसे
किस कदर कीमती है तुम्हारा साथ..



शुक्रवार, अगस्त 30

खो गया है आदमी

खो गया है आदमी

भीड़ ही आती नजर  
खो गया है आदमी,
इस जहाँ की इक फ़िकर
 हो गया है आदमी !

दूर जा बैठा है खुद
फ़ासलों की हद हुई,
हो नहीं अब लौटना
जो गया है आदमी !

बेखबर ही चल रहा
पास की पूंजी गंवा,
राह भी तो गुम हुई
धो गया है आदमी !

बांटने की कला भूल
संचय की सीख ली,  
बंद अपने ही कफन में
सो गया है आदमी !

श्रम बिना सब चाहता
नींद सोये चैन की,
मित्र बन शत्रु स्वयं का
हो गया है आदमी !

प्रार्थना भी कर रहा  
व्रत, नियम, उपवास भी,
वश में करने बस खुदा  
लो गया है आदमी !


बुधवार, अगस्त 28

बने तेरा मधुबन, ओ कान्हा !हमारा मन



बने तेरा मधुबन, ओ कान्हा !हमारा मन


सद्भावों की लताओं पर उगें शांति पुष्प
 झर सम सहज अश्रु हों तुझी को अर्पण !

प्रेम जलधार बहे उड़े उमंग की फुहार
स्नेह सुवास भरे चले शीतल बयार !

अंतर की पुलक शुभ्र माल बन सजे
श्रद्धा, ज्ञान, निष्ठा के दीप जल उठें

दोष कंटक बीन सुख शिला पर हो अर्चन
शुभ संकल्पों से आरती श्वासों से वन्दन


बने तेरा मधुबन, ओ कान्हा ! हमारा मन 

सोमवार, अगस्त 26

काश्मीर की बर्फीली चोटियों पर

काश्मीर की बर्फीली चोटियों पर  

उन्होंने रक्त बहाया
अंतिम बूंद तक
ताकि सलामत रहे देश...
 भटके मीलों पैदल रह भूखे
वज्र बनाया अस्थियों को
भीगे शोलों की वर्षा में
 तपन समोई भीतर अपने
ताकि भारत, भारत रहे...
व्यर्थ न हो यह उनका बलिदान
बर्फीले रस्तों पर घट रहा है जो
सम्भवतः नया वीर जन्मता होगा
 उसी क्षण में ही
जब मरता होगा सैनिक कोई !
सदा सीने पर खायी गोलियाँ
नहीं दिखाई किसी ने पीठ
बढ़ते ही गये एक लक्ष्य लेकर
चढ़ते ही गये न रुके कदम कभी उनके
ताकि मरण सार्थक बने 

शुक्रवार, अगस्त 23

भूख

भूख




भूख नहीं लगती !
क्या करूं ? डाक्टर साहब
डाक्टर से सम्पन्न मरीज ने की शिकायत
फलां-फलां टॉनिक और कैप्सूल की
 है आपको जरूरत.
कहा डाक्टर ने, जरा मुस्कुराते हुए
 बातें सुन उनकी
रहा न गया टैक्सी ड्राइवर से
पहुँचाने जा रहा था उन्हें 
बोला वह मन की
साहब ! क्या ऐसी कोई दवा है ?
जिसे खा लेने पर
 भूख नहीं लगती !



मंगलवार, अगस्त 20

रक्षा बंधन के उत्सव पर हार्दिक शुभकामनायें

राखी


कोमल सा यह जो धागा है
कितने-कितने भावों का
समुन्दर छुपाये है
जिसकी पहुंच उन गहराइयों तक जाती है
जहाँ शब्द नहीं जाते
शब्द असमर्थ हैं
जिसे कहने में
कह देता है राखी का रेशमी सूत्र
सम्प्रेषित हो जाती हैं भावनाएं
बचपन में साथ-साथ बिताये
दिनों की स्मृतियों की
गर्माहट होती है जिनमें
वे शरारतें, झगड़े वे, वे दिन जब एक आंगन में
एक छत के नीचे एक वृक्ष से जुड़े थे
एक ही स्रोत से पाते थे सम्बल
 एक ही ऊर्जा बहती थी तन और मन में
वे दिन बीत गये हों भले
पर नहीं चुकती वह ऊर्जा प्रेम की
 वह प्रीत विश्वास की
खेल-खिलौने विदा हो गये हों
पर नहीं मरती उनकी यादें
उनकी छुअन  
रक्षा बंधन एक त्योहार नहीं
स्मृतियों का खजाना है
हरेक को अपने बचपन से
बार-बार मिलाने का बहाना है
और जो निकट हैं आज भी
उनकी यादों की अलबम में
एक नया पन्ना जोड़ जाना है   

शनिवार, अगस्त 17

जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनायें

उन सब के लिए जिनका जन्मदिन आज है 

जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनायें


जीवन के इस सुंदर पथ पर
बन कर आता मील का पत्थर,
जन्मदिवस यह स्मरण कराने
थम कर सोचें तो यह पल भर !

नया नया सा दिन लगता है
नया हौसला भरतीं श्वासें,
नव कलिका मन की शाखों पर
दिल ने छेड़ी हैं नव तानें !

नये क्षितिज थमा जाता है
नई चुनौती, नई मंजिलें,
जन्मदिवस भर जाता भीतर
नये अनुभवों के सिलसिले !

मन में भरकर सहज उमंग,
जीतें जीवन की हर जंग,
चढ़े प्रीत का गहरा रंग,
मन पाले अब सत का संग!

कोमल दिल, दृढ भी अंतर
सहज प्रेम लुटायें सब पर,
जीवन को भरपूर जी सकें
दिल में जोश बहे निरंतर !

एक कदम और जाना है
मंजिल को पास बुलाना है,
जन्मदिन पर यही कामना
लब पर यही तराना है !


बुधवार, अगस्त 14

स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर

स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर



याद आ रहीं वे गाथाएं
सुनकर जिनको बीता बचपन,
शौर्य, वीरता, बलिदानों से
 थी सिचिंत जिनकी हर धड़कन !

आजादी अनमोल दिलाई
स्वयं के सुख-दुःख जो भूले थे,
‘करो या मरो’ के नारे संग
बढ़े, गर्व से वे से फूले थे !

भारत की संस्कृति का गौरव
स्मृति पटल पर आज छा रहा,
बसी है खुशबू मन में जिसकी
हर युग का इतिहास भा रहा !

काश्मीर का केसर महके
ताजमहल की सुन्दरता भी,
हिम से आच्छादित गिरिवर हैं
गंगा, यमुना का अमृत भी !

सतलज, रावी और चिनाब
कल-कल करतीं बुनती ख्वाब,
अमृतसर के हर मन्दिर में
झुका रहा है सिर पंजाब !

काशी के वे घाट अनोखे
शिव, गौरी के सुन्दर धाम,
संगम पर जुड़ता है कुम्भ
पुण्य भूमि हे ! तुम्हें प्रणाम !

वीर बाँकुरे मारवाड़ के
महल, हवेली  गाथा कहते,
महाराणा के अस्त्र देखकर
चकित हुए से दर्शक रहते !

दक्षिण हो या तट पश्चिमी
सागर की लहरों का जाल,
सीमाओं पर सजग सिपाही
उन्नत है भारत का भाल !

रविवार, अगस्त 11

गगन अपना लगेगा जगेंगी पाँखें

गगन अपना लगेगा जगेंगी पाँखें



अभावों का भाव नजर आता है
भावों का अभाव खले जाता है,
‘नहीं है’ जो, टिकी उस पर दृष्टि  
जो ‘है’, कोई देख नहीं पाता है !

जगे, पर सोने का अभिनय करते
नित नूतन रंग सपनों में भरते,
जानते, पल दो पल का भ्रम ही है
सामना सत्य का करने से डरते !

जागे हुओं को जगाना है मुश्किल
पानी से तेल नहीं होता हासिल,
फिर भी कोशिश किये जाते हैं वे  
दूर निकले जो कैसे पायें साहिल !

कभी तो होश आएगा खुलेंगी आँखें
गगन अपना लगेगा जगेंगी पाँखें,
देर न हो जाये बस डर यही है
रिस रहा जीवन हैं लाखों सुराखें !





गुरुवार, अगस्त 8

उस दिन

खनकती हुई सी इक याद, जैसे सुबह की धूप
नयनों में भर गया कोई, ज्यों चाँदनी का रूप

उस दिन

अचानक छा गये मेघ काले-धूसर
देखते ही देखते स्याह हो गया अम्बर
गरजने लगा इंद्र सेनापति सा
परचम लहराने लगे पवनदेव झूमकर
धरा उत्सुक थी स्वागत करने को
ऊंचे पर्वत भी घाटियों के दामन फैलाये
थे आतुर अमृत भरने को
पहले इक्का-दुक्का ही झरीं बूँदे
उस दोपहर
बरामदे में बैठ लगी जब वह सुनने
प्रकृति का मृदुल स्वर !
पर क्षणों की ही देर थी
तीव्र हो गया वेग वर्षा का
छप छप छपाक छपाक के सिवा
 न दे कुछ सुनाई, न आता था नजर
बूंदों के पार निहारा जब उसने
 नजर आती थीं बूँदें बस कुछ दूर तक
ऊपर तो था सपाट आकाश
मानो उसे हो ही न कोई खबर
मध्य में ही रचे जाता हो यह दृश्य
कोई अपने जादुई स्पर्श से
वह और बैठ न रह सकी  
प्रकृति के इस आह्लाद में शामिल होने से
वंचित स्वयं को कर न सकी
   हरियाली में नीचे भी जल था
 धाराएँ बरस रही थीं ऊपर से
भिगो रही थीं तन, मन को
 ही नहीं, उसके अन्तस् को
  सुखदायी वह जल का स्पर्श
 धरा की गोद कितनी कोमल
सिमट आया अस्तित्त्व उस क्षण उसकी आँखों में
  रेशा-रेशा सरस हो गया मेह में  
वह भाग बन गयी प्रकृति का
ज्यों पंछी, वृक्ष, लॉन की हरी घास और फूल
उस दिन जाना उसने
थी वह ध्वनि बढ़कर स्वर्गीय संगीत से
छुअन मखमली स्पर्श से !