नींद
कल रात फिर नींद नहीं आयी
नींद आती है चुपचाप
दबे पावों... और कब छा जाती है
पता ही नहीं लगने देती
कई बार सोचा
नींद से हो मुलाकात
कुछ करें उससे दिल की बात
प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा थी
उसके आने की कहीं दूर-दूर तक आहट नहीं थी
नींद आने से पहले ही होश को सुला देती है
स्वप्नों में खुद को भुला देती है
कभी पलक मूँदते ही छा जाती है खुमारी
अब जब करते हैं उसके स्वागत की तैयारी
तो वह छल करती है
वही तो है जो रात भर तन में बल भरती है
चहुँ ओर दौड़ते मन को चंद घड़ी देती है विश्राम
जहाँ इच्छाओं का जमावड़ा बना ही रहता है
कोई न कोई अड़ियल ख्याल खड़ा ही रहता है
जहाँ विचारों के हवा-महल बनते बिगड़ते हैं
पल में ही मन के उपवन खिलते-उजड़ते हैं
नींद की देवी चंद घड़ियां अपनी छाया में पनाह देती है
पर कल रात वह रुष्ट थी क्या
जो भटके मन को घर लौटने की राह देती है !
अच्छी रचना वही होती है जो आपके विचारों को विस्तार दे.
जवाब देंहटाएंएक तीसरी तस्वीर उभरे. ये वही रचना है.
आभार.
नयी रचना एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए
स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएं"नींद क्यों रात भर नहीं आती" का ख़ूबसूरत जवाब है ये 🙏🌹
स्वागत व आभार !
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