शनिवार, अगस्त 9

चलते जाना ही है मंज़िल

चलते जाना ही है मंज़िल 


भेद-भाव सारे ऊपर हैं 

नीचे सम-रसता की धारा, 

जाति, धर्म ओढ़े ऊपर से 

नहीं बनें वे दुर्गम कारा !


कलम हाथ में अगर न थामी 

शब्दों को दे कौन सहारा, 

यादों की कंदील जल रही 

पथ पर करती सहज उजारा ! 


चलते जाना ही है मंज़िल 

दूर कहाँ है? निकट किनारा 

दिल की दिल में ही रह जाती  

देखो किसी ने पुन: पुकारा !


बटन दबाते आती बिजली 

जगमग जैसे घर हो सारा, 

याद ह्रदय में पावन जिसने 

दिपदिप मन का आँगन बारा ! 


बुधवार, अगस्त 6

दुनिया तो बस इक दर्पण है

दुनिया तो बस इक दर्पण है


फूलों की सुवास बिखरायें 

या फिर तीखे बाण चलायें,

शब्द हमारे, हम ही सर्जक 

हमने ही तो वे उपजाए !


चेहरा भी व तन का हर कण 

रचना सदा हमारी अपनी, 

 अस्वस्थ हो तन या निरोगी 

ज़िम्मेदारी ख़ुद ही लेनी ! 


डर लगता है, गर्हित  दुनिया 

हम ही भीतर कहते आये,

अपने ही हाथों क़िस्मत में 

दुख के जंगल बोते आये !


कभी लोभवश, कभी द्वेषवश

कभी क्रोध के वश हो जाते, 

मन के इस सुंदर उपवन को 

पल भर में रौंद चले जाते !


कोई नहीं है शत्रु बाहर 

ख़ुद ही काफ़ी हैं इस ख़ातिर, 

दुनिया तो बस इक दर्पण है 

‘वही’ हो रहा इसमें ज़ाहिर !


शनिवार, अगस्त 2

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

कोई कहीं तलाश न करता 

भीतर न सवाल कोई शेष, 

नहीं राग अब सुख का उर में 

रह नहीं गया दुखों से द्वेष !


एक खेल सा जीवन लगता 

 अब न मोह में डाले माया,

एक अनंत मिला है बाहर 

एक शून्य भीतर जग आया !


इस पल में ही छुपा काल है 

एक बिंदु में सिंधु समाया, 

कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं 

इसी पिंड में उसको पाया !


जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

चारों ओर हवा सा बिखरा, 

सुमिरन की सुवास इक हल्की 

श्वासों से जाता है छितरा !


शुक्रवार, अगस्त 1

है और नहीं

है और नहीं 

जो ‘है’ 

वह कहने में नहीं आता 

जो ‘नहीं है’ 

वह दिल में नहीं समाता 

जो ‘होकर’ भी ‘न हो’ जाये 

जो ‘न होकर’ भी दिल को लुभाये 

वही तो सत्य का आयाम है 

जहाँ मौसमी नहीं 

तृप्ति के शाश्वत फूल खिलते हैं 

ठहर जाता है मन का अश्व 

हठात् और भौंचक 

तकता है 

निर्निमेष 

जहाँ मौन का साम्राज्य है 

खोल देती है प्रकृति 

अपने राज 

जाया जाता है 

जहाँ बेआवाज़ !


सोमवार, जुलाई 28

अंश

अंश 

सुबह-सुबह जगाया उसने 

कोमलता से, 

छूकर मस्तक को,

जैसे माँ जगाती है 

अनंत प्रेम भरे अपने भीतर 

याद दिलाने, तुम कौन हो ?

उसी के एक अंश 

उसके  प्रिय और शक्ति से भरे  

बन सकते हो, जो चाहो 

रास्ता खुला है, 

जिस पर चला जा सकता है 

 ऊपर से बहती शांति की धारा को 

धारण करना है 

जिसकी किरणें छू रही हैं

 मन का पोर-पोर 

अंतर के मंदिर में 

अनसुने घंटनाद होते हैं 

  जलती है ज्योति

  बिन बाती बिन तेल 

हो तुम चेतन 

इस तरह, कि अंश हो

उसी अनंत का !


शुक्रवार, जुलाई 25

गूँज किसी निर्दोष हँसी की

गूँज किसी निर्दोष हँसी की 


खन-खन करती पायलिया सी 

मधुर रुनझुनी घुँघरू वाली, 

खिल-खिल करती हँसी बिखरती 

ज्यों अंबर से वर्षा होती !

 

अंतर से फूटे ज्यों झरना 

अधरों से बिखरे ज्यों नगमा,

कानों को भी भरे हर्ष से 

अंतर को भी गुदगुद करती !

 

गूँज किसी निर्दोष हँसी की 

याद बनी इक  दिल में बसती,

कभी भिगोती आँखें बरबस 

कभी हृदय को भी नम करती !


मंगलवार, जुलाई 22

सत्य और भ्रम

सत्य और भ्रम 


माना कदम-कदम पर बाधायें हैं 

मोटी-मोटी रस्सियों से अवरुद्ध है पथ

आसक्ति के जालों में क़ैद 

मन आदमी का 

न जाने कितने भयों से है ग्रस्त  

 जो प्रकट हो जाते हैं स्वप्नों में 

ज्ञान की तलवार से काटना होगा 

रस्सी कितनी भी मोटी हो 

एक भ्रम है 

सत्य सूर्य सा चमक रहा है 

समाधि के क्षणों में 

उसे मन में उतारना होगा 

हर भय से मुक्ति पाकर ?

नहीं, सत्य में जागकर 

स्वयं को पाना होगा !


बुधवार, जुलाई 16

ढाई आखर सभी पढ़ रहे

ढाई आखर सभी पढ़ रहे



 प्रेम अमी की एक बूँद ही

जीवन को रसमय कर देती, 

 दृष्टि एक आत्मीयता की 

अंतस को सुख से भर देती ! 


प्रेम जीतता आया तबसे 

जगती नजर नहीं आती थी, 

एक तत्व ही था निजता में 

किन्तु शून्यता ना भाती थी !


 स्वयं शिव से ही प्रकटी शक्ति  

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है 

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !


हुए एक से दो थे जो तब 

 एक पुन: वे  होना चाहते,  

दूरी नहीं सुहाती पल भर 

प्रिय से कौन न मिलन माँगते ! 


खग, थलचर या कीट, पुष्प हों 

प्रेम से कोई उर न खाली, 

मानव के अंतर ने जाने 

कितनी प्रेम सुधा पी डाली ! 


करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य 

ढाई आखर सभी पढ़ रहे  

अहंकार की क्या हस्ती फिर, 

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !  


सोमवार, जुलाई 14

सत्य

सत्य 


सत्य है 

अखंड, एकरस

जानने वाला 

जान रहा प्रतिपल 

 नहीं है भूत या भविष्य 

उसके लिए 

वहाँ कोई भेद नहीं 

न दिशाओं का 

न गुणों का 

भावातीत, कालातीत व देशातीत  

वह बस अपने आप में स्थित है 

वह एक ही आधार है 

पर वह सदा अबदल है 

अभेद्य, अच्छेद्य 

उसमें सब प्रतीति होती है 

पर है कुछ नहीं 

दिखता है यह द्वन्द्वों का जगत 

यहाँ कुछ भी नहीं टिकता 

जबकि उस एक का 

 कुछ भी नहीं घटता ! 





शुक्रवार, जुलाई 11

‘को’ नहीं ‘की’

‘को’ नहीं ‘की’ 


हम भगवान ‘को’ मानते हैं 

भगवान ‘की’ नहीं मानते !

भगवान ‘को’ मानते हैं  

पर हम चलाते अपनी हैं  

भगवान ‘की’ मानने से 

निष्काम कर्म करना है 

उनके कर्म में हाथ बँटाकर 

इस जगत में सुंदर रंग भरना है 

जगत जो अभी हो रहा है 

परमात्मा ही जगत के रूप में 

नये-नये रूप धर रहा है 

उसकी मानें तो हम उसी के रूप हैं 

उसी के गुण हमें धारने हैं 

स्वयं को संवरते हुए, देखना है 

प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों में 

 उसकी ही छवि को 

धरा पर पुष्प और 

गगन पर रवि को 

तब वही हमारे द्वारा कर्म करता है 

यह सब भगवान ‘की’ मानने से घटता है !