रविवार, अप्रैल 11

उस अनंत के द्वार चलें हम

 उस अनंत के द्वार चलें हम

बाहर की इस चकाचौंध में   

भरमाया, भटकाया खुद को 

काफी दूर निकल आए हैं

अब तो घर को लौट चलें हम  !


कुदरत की यह मूक व्यथा है 

ठहरो, थमो, जरा तो सोचो, 

व्यर्थ झरे सब, सार थाम लो  

अब तो कदम संभल रखें हम ! 


माना मन के नयनों में कुछ  

स्वप्न अभी भी करवट लेते,  

किस आशा का दामन थामें !

आज अगर जीवन खो दें हम !


जो भव रोग बना हो छूटे 

आश्रय मिले मनस गुहवर  में,

सीमित हैं साधन जीवन के ! 

उस अनंत के द्वार चलें हम


लौट चलें हैं दूर वतन से 

जाने कब यह शाम घिरेगी,

जिस घर जाना नियति सभी की 

उसकी राह न कहीं मिलेगी !



शनिवार, अप्रैल 10

कविता

 कविता 

नहीं जानती थी वह 

कैसे लिखी जाती है कविता 

न कभी छंद का ज्ञान लिया

 न अलंकारों का अध्ययन किया 

पर चाँद को देखकर उसका मन खिल जाता है 

और नदी में पड़ते उसके प्रतिबिम्ब पर तो 

लट्टू हो जाता है 

इस तरह  

कि जैसे हाथ में ही आ जायेगा देह से निकल कर 

जब वह किसी खेत की पगडंडी पर धरती थी कदम 

तो चप्पल उठाकर हाथों में पकड़ लेती 

ताकि मिट्टी का स्पर्श भर सके 

नसों से उठता दिल से दिमाग तक 

उसने दिमाग से काम लेना 

छोड़ दिया था उस दिन  

 जब घर के बड़ों की चर्चा में 

 सलाह देने पर 

टोक दिया था किसी ने 

 हरी घास में छिपा नन्हा कीट दिख जाता है उसे

दिख जाता है दूर खिला अकेला फूल 

या शाम के धुँधलके में उड़ता हुआ अकेला पंछी 

वह उन सबके साथ इस दुनिया की 

सबसे राजदार शै को बांटती है !


गुरुवार, अप्रैल 8

उस दिन

उस दिन 

यह सारी कायनात 

उस दिन चलेगी 

हमारे इशारे पर भी 

जब हमारी रजा 

उस मालिक की रजा से एक हो जाएगी 

जब हमारी दुआओं में 

हरेक की सलामती की ख्वाहिश भी 

सिमट आएगी 

जब चाहतें पाक होंगी और दिल मासूम 

तब जो घटेगा वह हमें भी 

नहीं होगा मालूम 

पर रहमतों की बूंदें बिन बात ही बरस जायेंगी  

हमारी झोली अचानक ही भर जाएगी 

जब श्रद्धा का बिरवा मन में रोप दिया जाएगा 

तब उस अनाम का वरदान 

दिन-रात मिलने लगेगा 

जब इस सच की आंच भीतर झलक जाएगी 

तब दुनिया जैसी है वैसी ही नजर आएगी 

अपना सुख-दुख जब औरों का सुख-दुख बन जाएगा 

तब वह मालिक हमारे द्वारा मुस्कुराएगा !

 

मंगलवार, अप्रैल 6

कोरोना काल

कोरोना काल 

यह भय का दौर है 

आदमी डर रहा है आदमी से 

गले मिलना तो दूर की बात है 

डर लगता है अब तो हाथ मिलाने से 

 घर जाना तो छूट ही गया था

 पहले भी अ..तिथि बन  

अब तो बाहर मिलने से भी कतराता है 

एक वायरस ने बदल दिए हैं सारे समीकरण 

दूरी बनी रहे किसी तरह 

इसका ही बढ़ रहा है चलन 

डरा हुआ आदमी हर बात मान लेता है 

बिना बुखार के भी गोली फांक लेता है 

सौ बार धोता है हाथ 

नकाब पहन लेता है 

वरना एक को हुआ जुकाम तो 

सारा घर कैदी हो जाता है 

घर में अजनबी बन जाते हैं लोग अब 

दूसरे कमरे में बैठी 

माँ मानो चली गई हो दूसरे गाँव 

इस डर ने छीन ली है आजादी 

छीन ली है खुले बरगद की छाँव 

 दौर ही ऐसा है 

यह डरने और डराने का

यहाँ बस काम से काम रखना 

किसी की ओर नजर भी नहीं उठाने का ! 


 

सोमवार, अप्रैल 5

वर्षा थमी

वर्षा थमी 

पंछी छोड़ नीड़ निज चहकें 
मेह थमा निकले सब घर से, 
सूर्य छिपा जो देख घटाएँ 
चमक रहा पुनः चमचम नभ में !

जगह जगह छोटे चहबच्चे
 फुद्कें पंछी छपकें बच्चे, 
गहराई हरीतिमा भू की
 शीतलतर पवन के झोंके !

पल भर पहले जो था काला 
नभ कैसा नीला हो आया, 
धुला-धुला सब स्वच्छ नहा कर  
कुदरत का मेला हो आया !

 इंद्रधनुष सतरंगी नभ में
 सुंदरता अपूर्व बिखराता,
 दो तत्वों का मेल गगन में 
स्वप्निल इक रचना रच जाता !

जहाँ-जहाँ अटकीं जल बूँदें 
 रवि कर से टकराकर चमकें, 
जैसे नभ में टिमटिम तारे 
पत्तों पर जलकण यूँ दमकें !

 कहीं-कहीं कुछ धूसर बादल 
छितरे नभ में होकर निर्बल,
 आयी थी जो सेना डट के
 रिक्त हो गयी बरस बरस के ! 

पूर्ण तामझाम संग आयी 
काले मेघा गज विशाल हो, 
हो गर्जन तर्जन रणभेरी 
चमके विद्युत तिलक भाल ज्यों !

क्यों रहे मन घाट सूना


क्यों रहे मन घाट सूना


पकड़ छोड़ें, जकड़ छोड़ें 

 भीत सारी आज तोड़ें, 

बन्द है जो निर्झरी सी  

प्रीत की वह धार छोड़ें !


स्रोत जिसका कहाँ जाने 

कैद है दिल की गुफा में, 

कोई बिन भीगे रहे न 

आज तो हर बाँध तोड़ें !


रंग कुदरत ने बिखेरे 

क्यों रहे मन घाट सूना,

बह रही जब मदिर ख़ुशबू

बहा आँसूं हाथ जोड़ें !


जो मिले, भीगे, तरल हो 

टूट जाये हर कगार,  

पिघल जाये दिल यह पाहन 

भेद का हर रूप छोड़ें !


 

शनिवार, अप्रैल 3

पूजा पूजा के लिए

पूजा पूजा के लिए 


जब साधन भी हो पूजा साध्य भी  

वही फल है जीवन वृक्ष का 

जब आपा  कहीं पीछे छूट जाए 

तब जीवन पथ पर ‘कोई’

नया उजाला बिखेर जाता है !

जब अंतर तृप्त होकर छलक जाए

हर उस घड़ी में वह अनाम ही 

हमसे अभिसिक्त हुआ जाता है !

यदि अश्रु करुणा, प्रेम या कृतज्ञता के 

छलके कभी नयनों से  

चढ़ जाते वे स्वतः शिव मन्दिर में 

पूजा जब सहज घटती है 

तभी साधना सफल होती है 

जब उसी की पूजा कर 

 रिझा कर उसे ही पाया जाता है 

तब जीवन से कुछ नहीं पाना 

जीवन का ही उत्सव मनाया जाता है 

अपना होना ही जब 

उसके होने का प्रमाण बन जाये  

तब जीवन हर घड़ी एक वरदान बन जाता है !

 

शुक्रवार, अप्रैल 2

तू ही वहाँ नजर आया था


जहां कुछ भी नहीं था 

वहीं सब कुछ हुआ है, 

जहां इक सोच भर थी 

 वहाँ जग ये बना है ! 

तू ही वहाँ नजर आया था

जिसकी आँखों में भी झाँका 

तू ही वहाँ नजर आया था, 

बता, उस घड़ी क्या तूने भी

मुझमें खुद को ही पाया था ?


जो करना चाहा है दिल ने 

सदा कहाँ कर पाए हैं हम, 

ना करने की जिसे कसम ली 

वहीं खड़ा खुद को पाया थम !


इससे अच्छा यह ही होता 

जो सहज घटे घटने देते, 

हम जीवन को, अपनी लय में 

अपनी धुन में बहने देते !

 

बुधवार, मार्च 31

समर्पण की एक बूँद

समर्पण की एक बूँद


मन अंतर में दीप जले 

जब तक इस ज्ञान का कि 

  एक ही आधार है इस संसार का 

कि जीवन उसका उपहार है 

उस क्षण खो जाता अहंकार है 

वरना प्रकाश की आभा की जगह 

धुआँ-धुआँ हो जाता है मन 

कुछ भी स्पष्ट नजर नहीं आता 

चुभता है धुआँ स्वयं की आंखों में 

और जगत धुंधला दिखता है 

जो किसी और के धन पर अभिमान करे 

उसे जगत अज्ञानी कहता है 

फिर जो देन मिली है प्रकृति से 

उस देह का अहंकार !

हमें खोखला कर जाता है 

कुरूप बना जाता है 

स्वयं की प्रभुता स्थापित करने का  

हिरण्यकश्यपु का 

जीता जागता अहंकार ही थी होलिका

प्रह्लाद समर्पण है 

वह सत्य है, होलिका जल जाती है 

रावण जल जाता है जैसे 

अहंकार की आग में 

न जाने कितने परिवार जल रहे हैं 

समर्पण की एक बूँद ही 

शीतलता से भर देती है 

अज्ञान है अहंकार 

समर्पण है आत्मा 

चुनाव हमें करना है !


 

सोमवार, मार्च 29

नए कई सोपान चढ़ने हैं

नए कई सोपान चढ़ने हैं 

कल जो बीत गया 

जीवन की डाली से झर गया फूल है 

अब उसे दोबारा नहीं मिलना  है 

आज तो एक नया फूल

 नए कर्म  के रूप में 

खिलना है

याद की खुशबू समेटे वह नया कर्म 

जीवन को सुवासित करे 

नए क्षितिज हों, पंछी हर दिन नयी उड़ान भरे 

वह अस्तित्त्व इसी आस में 

बढ़ता ही चला जाता है 

कि कौन उसमें नए बीज बोये जाता है 

वाणी वरदान है उसका 

शब्दों से वही उमड़ता है 

फिर हर रात समेटकर अपनी झोली 

सहेज कर उन्हें रख देता है अपने सिरहाने 

अगले दिन उन्हीं से कुछ और गढ़ने हैं तराने 

उसका कोष कभी रिक्त नहीं होता 

जीवन चुक जाता है 

वह परम कभी नहीं चुकता !


हर दिन एक नया सवेरा लेकर आता है 

नया विश्वास, नयी आस लिए 

जाने कौन सा रहस्य खुलने वाला है 

नया खजाना मिलने वाला है 

अनगिनत कोष छिपे हैं प्रकृति के गर्भ में 

जीवन हर रोज नया होता जाता है 

जब अतीत सूखे पत्तों की तरह

झरता चला जाता है !

हर रोज एक नया  अवसर है 

नयी चुनौती भी 

हर दिन पर एक ताला लगा है 

जिसे खोलना है 

नए रंगों को जीवन में घोलना है 

नई राहों पहली बार कदम रखने हैं 

नए कई सोपान चढ़ने हैं 

नए कुछ ख्वाब बुनने हैं !


शनिवार, मार्च 27

अब समेटें धार मन की

अब समेटें धार मन की 


खेलता है रास कान्हा 

आज भी राधा के संग,  

प्रीत की पिचकारियों से 

डाल रहा रात-दिन रंग !


अब समेटें धार मन की 

जगत में जो बह रही है, 

कर समर्पित फिर उसी के 

चरण कमलों में बहा दे !


हृदय राधा बन थिरक ले  

 बने गोपी भावनाएं,  

उस कन्हैया के वचन ही 

  टेरते हों बंसी बने !


होली मिलन शुभ घटेगा 

तृप्त होगी आस उर की, 

नयन भर कर देख लें फिर 

अनुपम झलक साँवरे की !

 

शुक्रवार, मार्च 26

भोर-रात्रि

भोर-रात्रि 


हर सुबह एक नयी कहानी सुनाती है 

हर रात हम अतीत की केंचुल उतार

अस्तित्त्व को सौंप देते हैं स्वयं को 

ताकि वह नया कर सके हमें 

जो तीनों तापों से मुक्त करे 

वही रात्रि है, जो मन को पुनर्नवा करे !

हर दिन कुछ नया पथ तय करना है 

क्योंकि बस आगे ही आगे बढ़ना है 

थोड़ा सा और प्रेम 

और करुणा उस अनंत कोष से लेकर लुटानी है 

थोड़ी सी और समझदारी उस सविता देव से पानी है 

आज वाणी को और मधुर बनाया जा सकता है 

किसी बच्चे को रोते से हँसाया जा सकता है 

एक और दिन मिला है जब 

नए कुछ वृक्ष रोप सकें भू में 

नए कुछ गीत और बिखेर सकें आलम में 

सुरों को और सजीला किया जा सकता है 

रंगों को कैनवास पर किसी और ढंग से 

बिखेरा जा सकता है 

कितना कुछ है जो एक दिन में समा जाता है 

हर रोज एक पूरा जीवन जिया जा सकता है 

हर रात जैसे पुनः हमें तैयार करती है 

स्वप्नों के बहाने कुछ पुरानी यादें मिटाती

नए ख्वाब भरती है !

 

बुधवार, मार्च 24

समय

समय 


‘समय ठहर गया है’ 

जब कहता है कोई 

तो एक सत्य से उसका परिचय होता है 

समय ठहरा ही हुआ है अनंत काल से ! 

गतिमान वस्तुएं 

उसके चलने का भ्रम पैदा कर देती हैं !


‘समय भाग रहा है’ 

कहता है जब कोई 

वह एक अन्य तथ्य को दर्शाता है 

भाग रहा है उसका मन 

 किसी न किसी शै के पीछे !


‘समय उड़ता हुआ सा लगता है’ 

जब कोई आनंदित होता है 

और ठहर जाता है खुद में !


‘काटे नहीं कटता जब समय’ 

कोई अंधेरे में भटक रहा है 

अपनी पीड़ा को टाँक देता है समय पर !


समय कम है उसके लिए जो महत्वाकांक्षी है 

समय खराब है उसके लिए जो भाग्यवादी है 

समय अच्छा है आशावादी के लिए 

हर समय समान नहीं होता यथार्थवादी के लिए !


ज्ञानी जानता है 

समय एक कल्पना है 

वास्तव में एक बार में एक ही क्षण

 मिलता है जीने के लिए !