शनिवार, जुलाई 8

जीवन जो गतिमान निरंतर



जीवन जो गतिमान निरंतर 


रोकें नहीं ऊर्जा भीतर

पल-पल बहती रहे जगत में,

त्वरा झलकती हो कृत्यों से

पाँव रुकें नहीं थक मार्ग में !


नित रिक्त हों हरसिंगार सम

पुनः-पुनः मंगल ज्योति झरे,

रुकी ऊर्जा बन पाहन सी  

सर्जन नहीं  विनाश ही करे !


धारा थम कर बनी ताल इक  

बहती रहती जुड़ी स्रोत से,

जीवन जो गतिमान निरंतर 

दूर कहाँ है वह मंजिल से!


कृत्यों की ऊर्जा बहायें

भीतर खले न कोई अभाव,

भरता ही जाता है आँचल 

जिस पल माँगा मुक्ति का भाव  !


लुटा रहा है सारा अम्बर 

हम भी दोनों हाथ उलीचें,

क्षण-क्षण में जी स्वर्ग बना लें 

बँधी हुई मुठ्ठी न भींचें !


शुक्रवार, जुलाई 7

शरद की एक शाम

शरद की एक शाम


भीगी-भीगी दूब ओस से

हरीतिमा जिसकी मनभाती,

शेफाली की मोहक सुवास

झींगुर गान संग तिर आती !


शरद काल का नीरव नभ है

रिक्त मेघ से, दर्पण जैसा,

दमक रहा संध्या का तारा

चन्द्र बना सौंदर्य गगन का !


हल्की हल्की ठंडक प्यारी

सन्नाटे को सघन बनाती,

पेड़ों, पौधों की छायाएं

उपवन रहस्यमयी बनातीं !


नन्हें नन्हें कुछ कीट दूब में

श्वेत पतंगे ज्योति खोजते,

नवरात्रि पूजा के मंत्र स्वर

छन के आते मंदिर पट से !


एक और आवाज गूंजती

नीरवता को भंग कर रही,

बिजली चली गयी लगती है

जेनरेटर की धुन बज रही !


गुरुवार, जुलाई 6

अव्यक्त

अव्यक्त 

कविता फूटती है 

मन की भाव धरा पर 

सिंचित होती है जब वह 

प्रेम बुंदकियों से 

प्रेम  ! जो फैला है 

कण-कण में परमात्मा की तरह 

पर मिलता नहीं 

तपे बिना 

गहन अभीप्सा की अग्नि में !

कविता भाषा नहीं है  

भाषा की आत्मा है 

जो छुपी रहती है 

अलंकारों और उपमाओं के आवरण में 

एक सूक्ष्म भाव है यह 

जो छू जाता है 

अंतस् को 

ऊष्मा ले जहाँ से 

वाष्पित होता हुआ 

उमड़ आता है

 नि:श्वास  बनकर

और कभी-कभी 

आकार ले लेता है शब्दों का 

वरना तो 

उड़ जाता है आकाश में

अव्यक्त ही !  


मंगलवार, जुलाई 4

गुरु ज्ञान से

गुरु ज्ञान से


जग जाये वह तर ही जाये 

रग-रग में शुभ ज्योति जलाये, 

धार प्रीत की सदा बरसती 

बस उस ओर नज़र ले जाये !


काया स्वस्थ हृदय आनंदित 

केतन भरे रहें भंडारे, 

हर प्राणी हित स्वस्ति प्रार्थना 

निज श्रम से क़िस्मत संवारें 


अधरों पर हो नाम उसी का

नित्य नियम उर बाती बालें, 

कान्हा वंशी  डमरू शंकर 

सर्वजनों हित प्रेम सँभाले 


भेद मिटे अपनों ग़ैरों का 

काम सभी के सब आ जायें, 

जीवन यह आना-जाना है 

जो पाया है यहीं लुटायें !


सोमवार, जुलाई 3

सत्यं, शिवं, सुन्दरं सदगुरु

सत्यं, शिवं, सुन्दरं सदगुरु


एक बूँद में सागर भर दे 

जो अनंत को हमें थमा दे,

नाम खुमारी में तर कर दे 

घूँट-घूँट में अमिय पिला दे !


जो बंदे को खुदा बनाता, 

उर में शीतल स्थान दिला दे, 

द्वैत भावना मिटा हृदय से  

पल में अपना आप मिला दे !


आनन से प्रकाश बिखेरता 

अनुकम्पा बरबस  छलकाए, 

पल में राज खोल दे सारे

जीवन में जागरण जगाये !


जाने कौन देश का वासी, 

कहता दुनिया बदली जाए, 

सूक्ष्म लहर ज्यों भरी प्रेम से, 

रह-रह अपने निकट बुलाए !


सत्यं, शिवं, सुन्दरं सदगुरु, 

या फिर लीला उस ईश्वर की, 

आँखों ही आँखों में बोले, 

लगन लगा दे परमेश्वर की !


स्वयं जागा जगाने आता 

धर्म सहजता का बतलाये, 

पावनी दृष्टि एक डालकर, 

सेवा भाव परम भर जाये  !


गुरु पूर्णिमा पर्व अलबेला 

मिलना सूक्ष्म अदृश्य भाव का,

ख़ुद  से भी जो निकट बसा है , 

पा जाना उस निज स्वभाव का !


शनिवार, जुलाई 1

यदि मुक्त हुआ चाहो



यदि मुक्त हुआ चाहो


जो दर्द छुपा भीतर

खुद तुमने उसे गढ़ा, 

नाजों से पाला है

खुद उसको किया बड़ा !


तुमने ही माँगा है

ऊर्जा पुकारी है,

यदि मुक्त हुआ चाहो

अभिलाष  तुम्हारी है !


हम ही कर्ता-धर्ता

हमने ही भाग्य रचा,

अजाने में ही सही

दुःख भरी  लिखी ऋचा !


अब हम पर है निर्भर

यह दांव कहाँ खेलें,

जीवन शतरंज बिछा

कैसे यह चाल चलें !


सुख की यदि चाह तुम्हें

कुछ बोली लग जाये, 

क्या कीमत दे सकते

यह सर भी कट जाये !


शुक्रवार, जून 30

आधा-आधा


आधा-आधा

मेरा होना ही 

‘मेरे’ होने में सबसे बड़ी बाधा है 

कृष्ण हुए बिना 

जो कृष्ण से मिलन कराये 

वही राधा है 

जगत उसी का रूप है 

ऐसा नहीं कि 

  जगत एक व ईश्वर दूसरा है 

जो दिखता है 

वह ‘मैं’ नहीं हो सकता 

यही तो योग ने साधा है !



गुरुवार, जून 29

विपरीत का गणित

विपरीत का गणित 

जागरण यदि स्वप्न सा प्रतीत हो 

तो स्वप्न में जागरण घटेगा 

 कुरुक्षेत्र बन जाये धर्मक्षेत्र, तो 

हर कर्म से मंगल सधेगा 

मन में विराट झलके 

तो लघु मन खो जाएगा 

जैसे बूँद में नज़र आये सिंधु 

तो सिंधु हथेली में समा जायेगा 

यहाँ विपरीत साथ-साथ चलते हैं 

धूप-छाँव एक वट के नीचे पलते हैं 

श्रमिक की नींद बड़ी गहरी है 

मौन में छिपी स्वरलहरी है !


बुधवार, जून 28

हर बार

हर बार 


हर संघर्ष जन्म देता है सृजन को 

अत: भागना नहीं है उससे 

चुनौती को अवसर में बदल लेना है 

कई बार बहा ले जाती है बाढ़ 

व्यर्थ  अपने साथ 

और छोड़ जाती है 

कोमल उपजाऊ माटी की परत खेतों में 

तूफ़ान उड़ा ले जाते हैं धूल के ग़ुबार 

और पुन: सृजित होता है नव निर्माण 

जीवन जैसा मिले 

वैसा ही गले लगाना है 

उस परमात्मा को 

हर बहाने से दिल में बसाना है 

जो पावन है वही शेष रहेगा 

मायावी हर बार चला ही जाएगा 

जैसे मृत्यु ले जाएगी देह 

पर आत्मा तब भी निहारती रहेगी ! 


मंगलवार, जून 27

जीवन एक पहेली जैसा !



जीवन एक पहेली जैसा !

जीवन यह संदेश सुनहरा !


छोटा  मन  विराट हो  फैले

ज्यों बूंद बने सागर अपार,

नव कलिका से  कुसुम पल्लवित 

क्षुद्र बीज बने वृक्ष विशाल !


जीवन कौतुक एक अनोखा  !


मन यदि अमन बना सुध भूले

खो जाएं बूँदें सागर  में,

रूप बदल जाए कलिका का

मिट कर बीज मिलें माटी में I


जीवन अवसर एक आखिरी  !


किंतु कोई न मिटना चाहे

मन सुगीत सदा दोहराए

मानव ‘मै’ होकर ही जग में

कैसे आसमान छू पाए I


जीवन एक पहेली जैसा !


हो जाएँ यदि रिक्त स्वयं से

बूंद बहेगी बन के सरिता

स्वप्न सुप्त कलिका खिलने का

पनपेगा फिर बीज अनछुआ


शुक्रवार, जून 23

हम किधर जा रहे हैं


हम किधर जा रहे हैं

कितना बौना हो गया है समाज 

‘आदि पुरुष’ इसकी बानगी है 

बन गये हैं शास्त्र 

मनोरंजन का साधन 

छा गये हैं महानायकों के चरित्र पर 

कॉमिक्स और विदेशी कार्टून  

प्रबल हो गया है अंधकार का साम्राज्य 

अतीत का गौरव भुला देना चाहते हैं हम 

ताकि कोई उसे पुन: जीवित न कर सके 

शायद इसीलिए उसे विद्रूप भी कर रहे हैं 

जहां विमान था ऐश्वर्य का प्रतीक 

अब पशु प्रबल हो गया है 

जीवन का यह आधुनिक रूप है 

यहाँ भाषा की गरिमा नहीं रही 

हर मर्यादा टूट गई 

संस्कृति की रक्षा का दम भरने वाले ही 

आज उसके हंता नज़र आ रहे हैं 

पता नहीं कैसा है यह काल 

और हम किधर जा रहे हैं ? 


बुधवार, जून 21

योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ


योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ


योग दिवस की धूम है, सभी मनाते आज 

जीवन कैसे धन्य हो, छुपा योग में  राज 


सुख और शांति के लिए, जत्न  करे दिन रात 

योग करे से साध ली, ख़ुशियों  की बरसात 


योग कराता है मिलन, बिखरा मन  हो  एक 

जीवन फूलों सा खिले, मार्ग मिले जब नेक 


योग दिवस पर हर कहीं, मिलजुल हो अभ्यास 

समता बढ़े समाज में, अंतर में विश्वास 


सुख की बाट न जोहिये, भीतर इसकी ख़ान 

योग कला  को जानकर, पुलकित होते प्राण 


एक तपस्या, एक व्रत, अनुशासन है योग 

जीवन में जब आ जाय,  मिट जाये हर रोग 


महिमा योग  अपार है, शब्दों में न समाय

नित्य करे जो साधना, अंत: ज्ञान जगाये 


युग-युग से यह ज्ञात है, भुला दिया कुछ काल 

कृपा है  महाकाल की, पाकर  हुए  निहाल 

 


 


सोमवार, जून 19

चम्पा सा खिल जाने दो मन



चम्पा सा खिल जाने दो मन

उठो, उठो अब बहुत सो लिये
सुख स्वप्नों में बहुत खो लिये
दुःख दारुण पर अति रो लिये
वसन अश्रु से  बहुत धो लिये

उठो करवटें लेना छोड़ो
दोष भाग्य को देना छोड़ो
नाव किनारे खेना छोड़ो
दिवा स्वप्न को सेना छोड़ो

जागो दिन चढ़ने को आया
श्रम सूरज बढ़ने को आया
नई राह गढ़ने को आया
देव तुम्हें पढ़ने को आया

होने आये जो हो जाओ
अब न स्वयं  से नजर चुराओ
बल भीतर है बहुत जगाओ
झूठ-मूठ मत  देर लगाओ

नदिया सा बह जाने दो मन
हो वाष्पित उड़ जाने दो मन
चम्पा सा खिल जाने दो मन
लहर लहर लहराने दो मन