जीवन जो गतिमान निरंतर
रोकें नहीं ऊर्जा भीतर
पल-पल बहती रहे जगत में,
त्वरा झलकती हो कृत्यों से
पाँव रुकें नहीं थक मार्ग में !
नित रिक्त हों हरसिंगार सम
पुनः-पुनः मंगल ज्योति झरे,
रुकी ऊर्जा बन पाहन सी
सर्जन नहीं विनाश ही करे !
धारा थम कर बनी ताल इक
बहती रहती जुड़ी स्रोत से,
जीवन जो गतिमान निरंतर
दूर कहाँ है वह मंजिल से!
कृत्यों की ऊर्जा बहायें
भीतर खले न कोई अभाव,
भरता ही जाता है आँचल
जिस पल माँगा मुक्ति का भाव !
लुटा रहा है सारा अम्बर
हम भी दोनों हाथ उलीचें,
क्षण-क्षण में जी स्वर्ग बना लें
बँधी हुई मुठ्ठी न भींचें !