बुधवार, जुलाई 15

लद्दाख – धरा पर चाँद धरा - भाग २

लद्दाखधरा पर चाँद धरा 

२९ जून

शाम के पौने आठ बजे बजे हैं. हमारी आज की यात्रा पूर्ण हो चुकी है. सुबह पांच बजे नींद खुल गयी, रात को हवा में ऑक्सीजन की कमी का अहसास हुआ सो एक खिड़की खोल दी थी, बाहर हवा तेज थी, उसकी आवाज आती रही. सुबह उठे तो ठंड बढ़ गयी थी. भाई को प्रातः भ्रमण के लिए तैयार देखकर हम भी उसके साथ टहलने गये, यह गेस्ट हाउस हवाई अड्डे के पीछे स्थित है, काफी साफ-सुथरा है और नया बना है. बाहर निकलते ही चारों ओर सलेटी, मटमैले, काले, धूसर पहाड़ और उनके पीछे बर्फ से ढकी चोटियाँ नजर आती हैं. पर्वतों पर विभिन्न आकृतियों के अंकित होने का भ्रम होता है. एक घंटे के भ्रमण काल में हमने चार उड़ानों को हवाई पट्टी पर उतरते देखा, पहाड़ के पीछे से आता हुआ जहाज जब पलों में आगे आकर एक निश्चित स्थान से नीचे उतरता है तो यह दृश्य दर्शनीय होता है. नहा-धोकर ठीक साढ़े आठ बजे हम ग्लास हॉउस के रूप में बने भोजन कक्ष में गये, कुक ने तिकोन पराठों के साथ पनीर की भुज्जी बनाई थी. एक लोकल ड्राइवर दोरजी की इको वैन हमें साठ किमी दूर ‘हेमिस गोम्पा’ में ले गयी. रास्ता विभिन्न दृश्यों को समेटे था. सरसों के छोटे खेत भी दिखे तथा मनाली रोड पर घने वृक्ष भी. जगह-जगह श्वेत शांति स्तूप बने थे. मॉनेस्ट्री एक विशाल चट्टान पर बनी है तथा छह सौ वर्ष पुरानी है. मुख्य हॉल में बुद्ध की एक सुंदर प्रतिमा है तथा दोनों और बैठने के लिए लकड़ी की बेंच तथा मेजें हैं. हमने कुछ देर वहाँ बैठकर ध्यान भी किया, तभी वहाँ बैठा एक लामा शायद तिब्बती या लद्दाखी भाषा में मंत्रजाप करने लगा, वातावरण और भी प्रभावशाली हो गया. दीवारों पर आकर्षक रंगों में विभिन्न दृश्य अंकित किये गये हैं जिसमें भगवान बुद्ध व देवी तारा के चित्र हैं, अवलोकेश्वर के चित्र भी अंकित हैं. कला यहाँ इतनी सहजता से प्रस्तुत की गयी है कि विस्मयकारी प्रतीत होती है. प्रकृति ने जिस तरह अपना खजाना यहाँ लुटाया है उसी के अनुपात में बौद्ध लामाओं ने मठों को सजाया है. मन्दिर के बाहर जंगली गुलाब की एक झाड़ी थी जो फूलों से लदालद भरी थी. मार्ग में भी ऐसी कई झाड़ियाँ दिखीं. एक श्वेत-श्याम पक्षी भी दिखा जो बाद में पता चला मैगपाई था.

हेमिस के बाद हम ‘थिकसे मठ’ देखने गये जो दूर से ही अपनी वास्तुकला के कारण आकर्षित कर रहा था. विशाल चट्टान पर बना छह सौ वर्ष पुराना यह मठ अपने में महान इतिहास व वंश परंपरा छिपाए है. यहाँ बुद्ध की विशाल प्रतिमा है जो पद्मासन में बैठे हैं तथा दोनों हाथों को विशेष ढंग से बनाया गया है. मन्दिर के कक्ष में प्रवेश करते ही कमल की पंखुड़ियों के आकार में उनकी सुन्दर अँगुलियों के दर्शन होते हैं, फिर ऊपर देखें तो चेहरा और नीचे देखने पर पैर नजर आते हैं. एक लामा सामने बैठकर एक बड़े वाद्य से लयबद्ध ध्वनि निकाल रहा था. कुछ देर हम वहाँ रुके फिर नीचे उतरकर संग्रहालय में गये. स्मृति चिह्नों की दुकान से कुछ खरीदारी की.

हमारा अगला पड़ाव था ‘ड्रुक पद्म कारपो स्कूल’ आमिर खान की फिल्म के कारण जिसे अब रैंचो के स्कूल के नाम से भी जानते हैं लोग. वहाँ की एक गाइड लड़की का नाम था दिस्कित जिसका अर्थ है शांति. उसने बताया, स्कूल की आकृति बौद्ध वास्तुकला के आधार पर बनी है. जिसमें विभिन्न विभाग मंडल, वर्ग तथा चाबी के आकार में बनाये गये हैं. इमारत भूकम्प रोधी है और इकोफ्रेंडली भी. प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग ही होता है. स्कूल को इन सभी कारणों से सात अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. हमने वह खिड़की भी देखी जहाँ से ‘थ्री इडियट’ फिल्म में करेंट लगाने वाला सिस्टम काम करता है.

इसके बाद हम ‘शे पैलेस’ देखने गये. वहाँ काफी चढ़ाई थी. लद्दाख का राज परिवार पहले यहाँ रहा करता था. यहाँ भी एक सुंदर बुद्ध मन्दिर है. बुद्ध की प्रतिमा इतनी ही विशाल थी पर उसे सुंदर वस्त्रों से ढका हुआ था. सभी बौद्ध मठों में रंगीन रेशमी वस्त्रों का बहुत उपयोग होता है. रंगों से इन्हें बहुत प्रेम है, यहाँ के पहाड़ बेरंग हैं शायद इसीलिए.

‘सिन्धु नदी के घाट’ पर पहुंच कर मन इतिहास की कई घटनाओं का स्मरण करने लगा. इसी नदी के कारण हमारे देश का नाम हिंदुस्तान पड़ा और हम हिन्दू कहलाये. इसे पार कर कितने ही आक्रमणकारी भारत आये. नदी का बहाव तेज था तथा पानी ठंडा. जल का हाथ से स्पर्श किया उसमें उतरने का सवाल ही नहीं था. सिन्धु घाट दर्शन स्थल पर हर वर्ष उत्सव का आयोजन होता है. दलाई लामा या अन्य कोई लामा आते हैं तो यहीं पर उनका कार्यक्रम व उत्सव भी होता है.
 
हम गेस्ट हॉउस पहुंचे तो सवा दो बजे थे. भोजन कर कुछ देर आराम किया. शाम को पांच बजे चाय पीकर पुनः ड्राइवर को बुलाया. दोरजी शांत स्वभाव का लद्धाखी ड्राइवर है. यहाँ के लोग बौद्ध धर्म को मानने के कारण काफी शांत व प्रसन्न नजर आते हैं, वे मिलन सार हैं, एक जगह एक वृद्ध महिला के साथ, दूसरी जगह एक बच्चे के साथ तथा स्कूल में उस गाइड लड़की के साथ तस्वीर ली, सभी ने ख़ुशी-ख़ुशी हामी भरी. शाम को हम स्पितुक मठ देखने गये उसी के ऊपर काली माँ का मन्दिर था. काफी सीढ़ियाँ चढ़ कर हम ऊपर पहुंचे तो मठ बंद मिला, मन्दिर तक जाने के लिए पुनः चढ़ाई करनी थी, पर मन्दिर का शीतल, शांत वातावरण देखते ही सारी थकान पल भर में ही दूर हो गयी. सभी मूर्तियों के चेहरे रेशमी वस्त्रों से ढके थे पर जितने भी भाग दिखाई दे रहे थे. आश्चर्य जनक थे. काली माँ का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था. यमराज और भैरवी की मूर्तियां भी वहाँ थीं.


मन्दिर से उतरकर हम ‘हॉल ऑफ़ फेम’ देखने गये जो सेना द्वारा बनाया गया एक आधुनिक संग्रहालय है. यहाँ विभिन्न युद्धों में भाग लेने वाले सेना के जवानों के चित्र हैं, लद्दाख का नक्शा  है, हथियार हैं. बच्चों के लिए एक एडवेंचर पार्क है. संग्रहालय में हमने काफी समय बिताया. यहाँ के पौधों, पशुओं, पक्षियों के बारे में, यहाँ के लोगों के वस्त्रों, रहन-सहन की जानकारी भी यहाँ मिलती है.  पास ही एक कॉफ़ी शॉप थी. कुछ देर वहाँ बिताकर हम गेस्ट हॉउस लौट आये. रात होते होते हवा काफी तेज चलने लगी. कई तरह की आवाजें आ रही थीं जब सोने गये, काफी देर तक नींद नहीं आई, एयरपोर्ट पर उस दिन सुना था ऊंचाई के कारण होने वाली परेशानियों में नींद न आना भी एक समस्या है. 

मंगलवार, जुलाई 14

लद्दाख – धरा पर चाँद धरा भाग-१

लद्दाखधरा पर चाँद धरा

२८ जून २०१५  

आज सुबह सात बजे हम दोनों लेह पहुंच गये थे. कल दोपहर सवा बारह बजे घर से निकले थे, धूप तेज थी पर डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे के रास्ते में दो बार वर्षा हुई और ठंडी हवा चलने लगी. दिल्ली तक की हवाई यात्रा अच्छी रही, इन्डिगो का आतिथ्य स्वीकार करते हुए उपमा और मसाला चाय ली. दिल्ली में मंझले भाई के घर पहुंचने से पूर्व भाभी को फोन किया, वह घर से बाहर थी, पर हमारे पहुंचने से पूर्व ही लौट आई. भाई एक दिन पूर्व लेह पहुंच गया था, जहाँ वह एम.ई.एस में जॉब करता है. भाभी द्वारा परोसा स्वादिष्ट भोजन खाकर हम जल्दी ही सो गये पर देश की राजधानी में भी बिजली चले जाने से एसी बंद हो गया और नींद खुल गयी, सुबह अभी आकाश में तारे थे जब हम देहली एयरपोर्ट पर पहुंच गये. वहाँ एक लद्दाखी महिला बहुत अपनेपन से मिली जो अपने ग्याहरवीं में पढ़ रहे पुत्र को छोड़ने दिल्ली आई थी और अब वापस जा रही थी, लेह में उच्च शिक्षा का अभी उतना अच्छा प्रबंध नहीं है, हाई स्कूल के बाद बच्चे श्रीनगर, जम्मू, दिल्ली या चंडीगढ़ पढ़ने के लिए जाते हैं. पांच बजे जहाज में बैठे पर अंततः छह बजे जेट कनेक्ट का जहाज उड़ा और एक घंटे की यादगार यात्रा के बाद लेह के ‘कुशोक बकुला रिनपोछे एयरपोर्ट’ पर पहुंचा. हमने खास तौर पर खिड़की के पास वाली सीट लेनी चाही थी पर पता चला पन्द्रहवीं कतार में खिड़की ही नहीं है, सीट बदल कर चौदहवीं कतार में आये पर खिड़की के पास जगह खाली नहीं थी, दूर से ही हिमाच्छादित पर्वत श्रृखंलाओं को देखते और तस्वीरें उतारते एक घंटे के समय का पता ही नहीं चला. जहाज से उतरते ही पता चला कि वायुदाब व ऑक्सीजन के कम होने का असर कैसे प्रभाव डाल सकता है. जगह-जगह सूचनाएं दी जा रही थीं कि चौबीस घंटों तक ज्यादा श्रम न करें, अपने कमरे में ही रहें और शरीर को यहाँ के वातावरण के अनुकूल होने दें. हमने बचाव के लिए पहले ही डायमॉक्स नामक दवा की एक गोली ले ली थी और एक नाश्ते के बाद लेने वाले थे.
आज पहला दिन विश्राम का दिन है. यहाँ आंचल नामका एक डोगरी रसोइया जो ऊधमपुर का रहने वाला है, खाना बनाता है. सुबह आलू का परांठा, दो रोटियों के बीच भुने हुए आलू भर कर बनाया और दोपहर को भोजन के साथ बूंदी का रायता विशेष था जिसमें पुदीने की खुशबू आ रही थी. दोपहर को कुछ देर आराम किया, फिर पतिदेव ने दार्जलिंग ग्रीन टी पिलाई, छोटी बहन के दिए कारफोर के आलू चिप्स खाए, भाई ने खुबानी, खजूर तथा छिलके वाले काजू पेश किये. वैसे यहाँ के ठंडे वातावरण में ज्यादा भूख नहीं लगती है. हमें अब तक तो कोई विशेष परेशानी नहीं हुई है बस हाथों की अँगुलियों में झुनझुनी सी महसूस हो रही है रह रहकर ! शाम के साढ़े पांच बजने को हैं, धूप बहुत तेज है अब तक.


..और अब रात्रि के साढ़े नौ बजने को हैं. दिन भर आराम करने के बाद हम शाम को लेह शहर देखने गये, लगभग साठ प्रतिशत दुकानें कलात्मक वस्तुओं, पश्मीने व याक के ऊन से बनी शालों आदि की थीं, यानि पर्यटकों के लिए. पुत्र साथ में नहीं आ सका है, उसके लिए दो वस्तुएं खरीदीं. बाजार की कई तस्वीरें भी लीं. एक मठ ‘जौखांग’ भी देखा. जहाँ विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध की आकर्षक मूर्तियों से सजा विशाल हॉल था. एक गोल बाजार देखा, तिब्बती लोगों का रिफ्यूजी मार्किट भी कई जगह था. एक रेस्तरां में कहवा पीया. एक तिब्बती वहाँ स्टिक्स से नूडल्स खा रहा था, तभी एक विदेशी लडकी भी आयी, मुस्कुराती हुई, उसने लद्दाख का अभिवादन ‘जूले’ कहा और प्रेम से दुकानदार से मिली. जब तक भोजन आया वह लिखती रही. वह बहुत आकर्षक थी और शांत लग रही थी. जिस दुकान से उपहार लिए, उसका कश्मीरी मालिक भी काफी मिलनसार था. बाजार में सडकें कई जगह टूटी हुई हैं, पुनर्निर्माण का काम चल रहा है. क्षेत्रफल के हिसाब से देखें तो लेह काफी बड़ा है पर पुराना बसा हुआ शहर छोटा सा ही है, तुलना में गाड़ियों की संख्या बहुत ज्यादा है. पूरा लद्दाख क्षेत्र दो जिलों से बना है, लेह था कारगिल. सारसिंग नामका एक वृक्ष यहाँ कई जगह उगते हुए देखा, वनस्पति ज्यादा नहीं है. चारों और खाली पहाड़ हैं और ऊपर बर्फ से ढके श्वेत पहाड़ ! सम्भवतः यह विश्व का सबसे ऊँचा और ठंडा, बसा हुआ प्रदेश है.  

बुधवार, जुलाई 8

धरती और आकाश गा रहे

धरती और आकाश गा रहे

अब हमने खाली कर डाला
अपने दिल की गागर को,
अब तुझको ही लाना होगा
इसमें दरिया, सागर को !

अब न कोई सफर शेष है
कदमों को विश्राम मिला,
अब तुझको ही पहुंचाना है
शबरी को जहाँ राम मिला !

अब न जोड़ें अक्षरमाला
कविता, गीत, कहानी में,
झरना होगा स्वयं ही तुझको
इन लफ्जों की रवानी में !

अब क्या चाहें मांग के तुझको  
पूर्ण हुआ सारे अरमान,
धरती और आकाश गा रहे
संग हंसे दिन रात जहान !

तितली, पादप बने हैं भेदी
हरी दूब देती संदेश,
अब तू कहाँ छिपा है हमसे
सुनें जरा अगला आदेश !

अब तो जीना मरना सम है
कैसी घड़ी अनोखी है,
इक चट्टान चैन की जैसे
क्या ये तेरे जैसी है !   

गुरुवार, जून 25

अपने ही घर में जो बैठा



 अपने ही घर में जो बैठा

इतने बड़े जहाँ में अपना
नहीं ठिकाना बन पाया,
टूट के सबसे खुद को ढूँढा
सबको खुद में ही पाया !

पास ही था वह मीत खड़ा
हाथ बढ़ाकर छू लेते,
लेकिन रूह को हर ख्वाहिश से
हमने खाली ही पाया !

छुपे हुए थे जाने कितने
ख्वाब खजानों से भीतर,
सदा लुटाया है गीतों को
हमने जी भर भर गाया !

नहीं चुकेगा रस्ता उसका
जो तिल भर भी दूर नहीं,
अपने ही घर में जो बैठा
उसको कहाँ कहाँ पाया !

गुरुवार, जून 18

वही एक है

वही एक है



एक मधुर धुन वंशी की ज्यों
एक लहर अठखेली करती,
एक पवन वासन्ती बहकी
एक किरण कलियों संग हँसती !

एक अश्रु चरणों पर पावन
एक दृष्टि हर ले जो पीड़ा,
 एक परस पारस का जैसे
एक शिशु करता हो क्रीड़ा !

एक परम विश्राम अनूठा
एक दृश्य अभिराम सजा हो,
एक स्वप्न युगों तक चलता  
एक महावर लाल रचा हो !

एक मन्त्र गूँजे अविराम
एक गीत लहरों ने गाया,
एक निशा सोयी सागर पर
एक उषा की स्वर्णिम काया !

बुधवार, जून 17

मंजिल और रस्ता


मंजिल और रस्ता 

लगता है यूँ सफर की.. आ गयी हो मंजिल
या यह भी इक ख्याल ही निकलेगा दिलों का

यूँ ही चले थे उम्र भर मंजिल पे खड़े थे
अब लौट के पहुंचे जहाँ वह अपना ही घर था

रस्ते में खो गयी गठरी जो ले चले
राही भी न बचा रस्ता भी खो गया सा 

अब एक ही रहा है चुप सी ही इक लगाये
कहने को कुछ नहीं है यूँ मौन बह गया 

शुक्रवार, जून 12

राहे जिंदगी में

राहे जिंदगी में

न तू है न मैं बस एक ख़ामोशी है
इश्क की राह पर यह कैसा मोड़ आया

न ख्वाहिश मिलन की न विरह का दंश
राहे जिंदगी में कैसा मुकाम आया

एक ठहराव सा कोई सन्नाटा पावन
सफर में यह अनोखा इंतजाम पाया

पत्ते-पत्ते पर लिखी है कहानी जिसकी
हर श्वास पर उसी का अधिकार पाया 

बुधवार, जून 10

आषाढ़ की एक रात



आषाढ़ की एक रात


बरस बरस दिन भर
पल भर विश्राम लेते बादल
ठिठक गये हैं अम्बर पर
अँधियारा छाया है नीचे ऊपर
बेचैन होंगे चाँद, तारे भी
झांक लें धरा
गा रहे जो गीत झींगुर, सुनने
उसे जरा
युगलबंदी मेढकों की
जुगनुओं की सुप्रभा
रातरानी की महक
जो उड़ रही है हर कहीं
रात अंधियारी लुभाती
नम हुई हर श्वास भी !

सोमवार, जून 8

रौशनी का दरिया


चलना है बहुत पर पहुँचना कहीं नहीं  
किताबे-जिंदगी में आखिरी पन्ना ही नहीं

घर जिसे माना निकला पड़ाव भर
सितारों से आगे भी है एक नगर

दिया हाथ में ले चलना है सफर पर
साथ नहीं कोई न कोई फिकर कर

जुबां नहीं खोलता वह चुप ही रहता है
रौशनी का दरिया खामोश बहता है

बिन बदली बरखा बिन बाती दीपक जलता
कहा न जाये वर्तन कभी न वह सूरज ढलता  

शुक्रवार, जून 5

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुभकामनायें

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुभकामनायें


रोज भोर में
चिड़िया जगाती है
झांकता है सूरज झरोखे से
पवन सहलाती है
दिन चढ़े कागा
पाहुन का लाये संदेस
पीपल की छाँव
अपने निकट बुलाती है
गोधूलि तिलक करे
गौ जब रम्भाती है
झींगुर की रागिनी
संध्या सुनाती है
नींद में मद भरे
रातरानी की सुवास
प्रातः से रात तक
प्रकृति लुभाती है !

नदियाँ दौड़ती हैं सागर तक
देती सौगातें राह भर
अवरुद्ध करे निर्मल धारा
मानव क्यों स्वार्थ कर
अपना ही भाग्य हरे
प्रकृति का चीर हरे !

बुधवार, जून 3

नई नकोर कविता


नई नकोर कविता

बरसती नभ से महीन झींसी
छू जाती पल्लवों को आहिस्ता से
ढके जिसे बादलों की ओढ़नी
झरती जा रही फुहार
उस अमल अम्बर से !
छप छप छपाक खेल रहा पाखी जल में
लहराती हवा में लिली और
रजनीगन्धा की शाखें
गुलाब निहारता है जग को भर-भर आँखें
हरी घास पर रंगोली बनाती
 गुलमोहर की पंखुरियां
भीगे-भीगे से इस मौसम में
खो जाता मन 
संग अपने दूर बहा
ले जाती ज्यों पुरवैया...

बुधवार, मई 27

कुछ भूली-बिसरी यादें

कुछ भूली-बिसरी यादें

लंबा, छरहरा कद, गेहुँआ रंग, फुर्तीला तन और आवाज में युवाओं का सा जोश. ऐसे हैं माथुर अंकल ! जब भी आंटी के साथ बेटी-दामाद से मिलने असम आते उनसे भेंट होती. यह सिलसिला कई वर्षों से चल रहा था. अपने नाती-नातिन के प्रति उनका अति प्रेमपूर्ण व्यवहार, वृद्धा संगिनी का हाथ पकड़ कर सड़क पार कराना, मेहमानों के आने पर रसोईघर में बेटी का हाथ बंटाना, फिर भी घर में ऐसे रहना जैसे हो ही नहीं, ऐसे जैसे हवा रहती है. अगले दिन वे वापस जाने वाले थे, सो उस शाम जब मिलने गयी तो बातों का क्रम उनके अतीत की ओर मोड़ते हुए कुछ सवाल किये. जवाब में उन्होंने कई रोचक संस्मरण सुनाये.
“आप जानती हैं, उस वक्त पूरे सूबे में एक आईजी हुआ करता था, आज तो एक जिले में ही एक से अधिक होते हैं. यह पंडित नेहरू के युग की बात है. आज बच्चे-बच्चे के पास मोबाइल फोन हैं, उस वक्त यदि कोई वीआईपी आने वाला होता था तो कमिश्नर भी घंटों तक खड़े रहकर प्रतीक्षा करने को विवश थे. काफिला कहाँ तक पहुंचा है, जानने का कोई साधन ही नहीं था. मैंने बीएससी की डिग्री लेने के बाद पुलिस के वायरलेस तकनीकी विभाग में वायरलेस ऑपरेशन अधिकारी के पद पर लखनऊ में कार्य करना शुरू किया. मुरादाबाद में हमें सख्त ट्रेनिंग दी गयी, सुबह पांच बजे उठकर परेड करनी होती थी, राइफल चलाना भी सिखाया गया. उस समय उत्तरप्रदेश के पुलिस प्रमुख एक कर्नल थे, उन्होंने हरिद्वार के कुम्भ मेले में पहली बार वायरलेस सेट का इस्तेमाल किया था. ये सेट अमेरिकी सेना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मुम्बई  में छोड़ गयी थी. भारत सरकार ने इसे राज्यों की पुलिस को ले जाने के लिए कहा तो लखनऊ के जोशीजी इन्हें ले आये. बैटरी से चलने वाले इन उपकरणों को अपनी जरूरत के अनुसार बदल  कर हम काम में लाने लगे.
मैंने पहली बार इनका प्रयोग इलाहबाद के कुम्भ मेले में किया. उस साल वहाँ एक भयानक हादसा हुआ था. वहाँ के स्थानीय निकाय तथा पुलिस ने मेले के लिए काफी प्रबंध किये थे लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था. संगम तक पहुंचने के लिए एक ऊंचा टीला पार करना पड़ता था, जिसे मिट्टी वगैरह डालकर ठीकठाक किया गया था. रात को वर्षा हुई व मुँह अँधेरे स्नानार्थियों की भीड़ आनी शुरू हो गयी. टीले की ऊंचाई पर लोग आराम से पहुंच रहे थे पर उतरते समय फिसलन इतनी ज्यादा हो गयी कि लोग गिरते-पड़ते नीचे पहुंचने लगे. पीछे आने वालों को इसकी खबर नहीं थी, भीड़ बढती जा रही थी, लोग कुचले जा रहे थे. हमने टावर से यह हादसा देखा, वायरलेस सेट का प्रयोग कर जब तक हम लोगों को सचेत कर पाते कई सौ कीमती जानें जा चुकी थीं. कतार में रखे सफेद चादरों में लिपटे शवों का वह दृश्य आज भी कंपा जाता है.”
हम सब भी यह सुनकर सन्न रह गये थे. अंकल थोड़ा प्रकृतिस्थ हुए तो आगे कहने लगे,
“सन् बासठ के चीनी आक्रमण के वक्त मुझे मुरादाबाद भेजा गया, जहाँ से हमारी यूनिट उत्तरकाशी, जोशीमठ तथा आगे गंगोत्री तक गयी. बर्फ गिरने से रास्ते बंद हो गये थे. सेना से भी आगे रहकर दुश्मन के हमले को झेला. वायरलेस सिस्टम के द्वारा ही संदेश भेजना सम्भव हो सका था.”
हम सभी उनकी बातें बड़े आश्चर्य के साथ सुन रहे थे. आगे उन्होंने बताया, “अगले कुछ वर्षों तक मेरी ड्यटी अति विशिष्ट अधिकारियों के साथ लगी. कुछ दिन खुफिया विभाग में काम किया और संचार मंत्रालय में भी. जब कभी वीआइपी आते थे, मिनट-मिनट बड़ा कीमती होता था, उन्हें सुरक्षित लाने के लिए कितनी बार रिहर्सल होती थी. उनके सामने खुर्श्चेव आये, ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा आये और दलाई लामा, राजेन्द्र प्रसाद के साथ भी उनकी ड्यूटी लगी थी. नेहरू जी जब लखनऊ आते तो हिंडन ब्रिज पर काफिला रोककर दिल्ली पुलिस लौट जाती थी. फिर यूपी पुलिस की जिम्मेदारी थी. नेहरू जी का एक रोचक किस्सा उन्होंने बताया, एक बार लोग उनके दर्शनों के इंतजार में खड़े-खड़े थक गये थे, जब वे पहुँचे, उन्होंने गाड़ी रुकवाई और लोगों से मिलने लगे, सारी सुरक्षा धरी रह गयी, किसी ने लड्डू दिया तो उन्होंने खा लिया.
माथुर अंकल के पास और भी मजेदार किस्से थे, कैसे सुल्ताना डाकू को पकड़ने ब्रिटेन से एक कैदी आया था. एक बार वह खुद यूनिट के साथ मान सिंह को पकड़ने गये थे. कहने को तो पुलिस तन्त्र था पर कई तरह के काम उन्होंने किये. माइक, जेनरेटर भी सुधारे. उनके काम से अफसर बहत खुश थे, तरक्की भी मिलती गयी. उन्हें पुलिस पदक भी मिला, पड़ोसी ने अख़बार पढ़ा और उन्हें आकर यह खबर सुनाई. राजभवन में शानदार आयोजन हुआ था.
हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की बात कहते समय उनकी आँखें चमक रही थीं, “लखनऊ की पुलिस लाइन में रहते समय सभी मिलजुलकर सब त्यौहार मनाते थे. जफर साहब कीर्तन में शामिल होते थे, ईद व दीवाली सब मिल कर मनाते थे.” शाम काफी हो गयी थी. सब से विदा लेकर हम घर आये तो मन में वह स्मृतियाँ ताजा थीं. आज उन्हें कागज पर उतार दिया है, ताकि कुछ और लोग भी पढ़कर भारत के अतीत से रूबरू हो सकें औत माथुर अंकल जैसे व्यक्तित्व से भी.