शनिवार, मई 2

शब्द-अर्थ

शब्द-अर्थ 

जहाँ शब्दों के अर्थ छाया की तरह 
उनके साथ डोलते रहते हैं 
अंतर के उस लोक में हमें  जाना होगा 
शब्दकोशों से जो भी अर्थ हम ढूंढेंगे 
वे चुराए हुए होंगे 
उन पर हमारा हक नहीं है 
‘प्रेम’ कहते ही यदि भीतर कहीं 
वसंत की अनुभूति न हो तो 
कोरा शब्द है यह, 
‘शांति’ के उच्चारण के साथ यदि 
मौन की अजस्र धाराएं मन को 
भिगोती हुई न चली आ रही हों 
तो बेमानी है यह शब्द 
हम शब्दों की  देहें लिए चलते हैं 
और मस्तिष्क को एक 
अजायबघर बना देते हैं 
अर्थ उनकी आत्मा है 
जिनसे वे जीवंत  हो जाते हैं 
तब उनके आलोक में हम घिर जाते हैं !

शुक्रवार, मई 1

आज मजदूर दिवस है

आज मजदूर दिवस है 


आएं, श्रम का हम सम्मान करें 
कर्मठ मजदूरों का मान करें 
जिनके बल पर बनती हैं सड़कें 
महल-दुमहले उठ जाते नभ में देखते-देखते 
हजारों मीलों तक रेलों की पटरियां बिछतीं
बीहड़ जंगलों से जो गुजरतीं 
कूप गहरे तेल के या जल के भी हों 
खोदने में पल भर की ना देरी लगाते 
खेत-खलिहान में काम जुटे रात-दिन  
धूप-वर्षा, शीत लहर सहते
आज वे बेघर हुए या घरों से दूर 
महामारी के सताये 
जाने कैसा जीवट उनके मनों की 
गहराई में वास करता 
नहीं,  संभव नहीं कि,  कभी उनके 
श्रम का प्रतिदान कुछ हम दे सकें 
कम से कम अदम्य साहस सराहें 
देखकर अप्रतिम योगदान उनका 
देश के चहुँमुखी विकास में 
आज कर्मवीर कहकर पुकारें !

गुरुवार, अप्रैल 30

अलविदा इरफ़ान

अलविदा इरफ़ान 

जब हजारों जीवन ज्योतियाँ रोज बुझ रही हों 
महामारी ने मजबूती से अपने पैर पसार लिए हों विश्व में 
दूर तक छाए हों अनिश्चय के बादल 
तो मन उम्मीद के सहारे स्वयं को संभाले रहता है 
गाता है आशा के गीत 
नकार देना चाहता है मृत्यु की आती हुई हर आहट
और दूर कहीं सो जाती हुआ जिंदगियों से 
उसका नाता ही नहीं बनने देता 
पर जब एक कोई अपना चला जाता है जहान से 
जिसकी आँखों में झाँका था 
जिसकी मुस्कान को सराहा था 
जिसके दर्द को महसूस किया था 
जिसकी सादगी और दिल की साफगोई पर 
कुर्बान हुए थे 
जो कभी खलनायक होकर भी नायक पर भारी था 
उस कलाकार की मौत पर 
सभी गमगीन नजर आते हैं 
हम उन्हीं के लिए अश्रु बहाते हैं 
जिनसे बन जाते दिल के नाते हैं !

बुधवार, अप्रैल 29

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे 

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे 
कहने को कोई शब्द न मिले 
नत मस्तक हो जाना ही होगा 
उस अनाम के आगे 
जो परे है वाणी के 
मौन में वह स्वयं का पता दे रहा है 
हमसे हमारा ‘अहम’ ले रहा है 
जो निःशब्द में सहज ही मिलता है
शब्दों के अरण्य में खो जाता है 
जैसे खो जाती है सूर्य किरण घने वनों में 
जहां वृक्षों की शाखाएँ सटी हैं इस तरह 
कि सदियों से नहीं पहुँची सूर्य की कोई किरण 
नहीं छुआ वहां की माटी को अपने परस से 
जहाँ काई और नमी में डेरा बना लिया है 
कीट-पतंगों ने 
मन में शब्दों का जमघट ‘उसे’ आने नहीं देता 
जो सदा ही उजास बनकर आसपास है 
इस सन्नाटे में उसी से भरना होगा मन का कलश 
और छलक-छलक कर वही रिसेगा 
भर जायेगा कण-कण में तन के 
ऊर्जा की एक लहर बन कर समो लेगा जब 
यह सत्य तभी स्पष्ट होगा कि 
एक लहर के सिवा क्या हैं हम ....? 

मंगलवार, अप्रैल 28

तू ही दाता

तू ही दाता


‘देने’ को कुछ न रहा हो शेष 
जब आदमी के पास 
तब कितना निरीह होता है वह ! 

देना ही उसे आदमी बनाये रखता है 
मांगना मरण समान है 
खो जाता जिसमें हर सम्मान है !
देना जारी रहे पर किसी को मांगना न पड़े 
ऐसी विधि सिखा रहा आज हिंदुस्तान है !

पिता जैसे देता है पुत्र को 
माँ  जैसे बांटती है अपनी सन्तानों को 
उसी प्रेम को भारत के जन-जन में प्रकट होना है 
ताकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ मानन वाली इस संस्कृति की 
बची रहे आन,आँच न आए उसे !

जहां अनुशासन और संयम 
केवल शब्द नहीं हैं शब्दकोश के 
यहां समर्पण और भक्ति
 कोरी धारणाएं नहीं हैं 
यहां परमात्मा को सिद्ध नहीं करना पड़ता 
वह विराजमान है घर-घर में 
कुलदेवी, ग्राम देवी और भारत माता के रूप में !

सोमवार, अप्रैल 27

हम और दुनिया

हम और दुनिया 


हम जैसे हैं, 
वैसे ही स्वीकार करे दुनिया 
चाहते हैं हम, 
क्योंकि बदलना हमें भाता नहीं 
इसमें श्रम लगता है, खुद को तराशना पड़ता है 
जो हमें  आता नहीं !
अपनी भूलें भी सहज लगती हैं 
आखिर वे किसी का क्या बिगाड़ती  हैं ?
पर... दुनिया को तो बदलना होगा 
हमारी ख्वाहिश यही है !
वहां असत्य है ( जैसे कि हम सत्य के अवतार हैं )
वहां अन्याय है ( हम तो न्याय के पुजारी हैं )
वहां अधर्म है ( जैसे कि हम धर्म का पाठ पढ़कर ही जन्मे थे )
वहाँ हमें कोई समझता नहीं (जैसे हमने हर किसी को समझने का प्रयास कर ही लिया है )
हम स्वीकारते हैं स्वयं को सारी भूलों सहित 
तो क्यों न स्वीकार लें जगत को जैसा वह है !
परमात्मा हर जगह उतना ही समाया है 
जिसे वह कमल और कीचड़ दोनों में नजर आया है 
वह जानता है
 कमल खिल नहीं सकता बिना कीचड़ के 
हाँ, उससे ऊपर उठता है जो 
वह यह राज देख पाता है 
धर्म-अधर्म दोनों के परे जाकर ही 
कोई उस एक से जुड़ पाता है !

रविवार, अप्रैल 26

भेद - अभेद

भेद - अभेद 


शब्दों को मार्ग दें तो वे 
भावनाओं के वस्त्र पहन 
 बाहर चले आते हैं 
यदि राह में कण्टक न हों 
बेहिसाब इच्छाओं के 
प्रमाद के पत्थर न रोक लें उनका मार्ग 
तो विमल सरिता से वे बहते चले आते हैं 
धोते हुए अंतर्जगत 
और बाहर भी उजास फैलाते हैं 
शब्दों में छुपा है ऋत
और वाग्देवी ने उन्हें तराशा है 
मानव के पास अस्तित्त्व का 
अनुपम उपहार उसकी भाषा है 
इन्हें मैला न होने दें  
इन्हें तोड़ने का नहीं जोड़ने 
का साधन बनाएं 
मानवता को सुलाने के लिए लोरी न बनें ये 
इनमें क्रांति की चिंगारी सुलगाएँ
कि गिर जाएँ मिथ्या दीवारें 
खो जाएँ सारे भेद 
एक गुलदस्ते की तरह 
नजर आये दुनिया 
घटे अभेद !

शनिवार, अप्रैल 25

एक है दूजे के लिए

एक है दूजे के लिए 

सूरज जलता है, तपता है 
ताकि जीवन की ज्योति जले धरा पर !
धरती गतिमय है रात-दिन 
बिना क्लांत हुए 
ताकि मौसमों का आना-जाना लगा रहे !
जब वह निकट हो जाती है सूर्य के 
ग्रीष्म की हवाएँ बहती हैं 
दूर हो जाती है तो पर्वतों पर 
बहने लगते है हिम के झंझावात 
मौसम बदलते हैं 
ताकि हरियाली और जीवन खिलता रहे !
हरे-भरे चारागाह भोजन देते हैं 
पशुओं को 
 वनस्पति और प्राणी एक-दूसरे के लिए हैं !
पर समय की धारा में 
जाने कब ऐसा हुआ कि
मानव जीने लगा
 मात्र अपने लिए ! 

शुक्रवार, अप्रैल 24

कृष्ण

कृष्ण 


कृष्ण कहते हैं 
जीवन एक यज्ञ है 
इसे युद्धक्षेत्र मत बनाओ 
किन्तु यदि कोई चारा न हो 
तो अपने-अपने गांडीव उठाओ !

कृष्ण की आँखों से जग को देखें 
तो कुरुक्षेत्र, यज्ञक्षेत्र ही नजर आता है 
यहां आहुति दे रहे हैं सभी 
अपने-अपने हिस्से की 
 अपने लिए नहीं हर 
युद्ध औरों के लिए लड़ा जाता है 

निज सुखों की आहुति देकर 
आज भी लड़ रहे हैं सैनिक 
कुछ सीमाओं पर कुछ अस्पतालों में 
सड़कों पर और मोहल्लों में 
जिन्हें रोक नहीं पाता
मृत्यु का भय 
कर्त्तव्य का पालन करते हुए यहाँ
हर रोज एक-एक कदम आगे बढा जाता है !

गुरुवार, अप्रैल 23

घर पर ही रहें

घर पर ही रहें


जिंदगी गणित के सूत्रों से नहीं चलती 
एक छोटा सा वायरस 
जो छुपा है एक आदमी में 
अनेक आदमियों में फैल सकता है 
एक वायरस... 
सारे गणित को फेल कर रहा है 
जो ग्रस लेता है 
पूरे परिवार को देखते-देखते 
वायरस ने आपको छुआ है या आपने उसे 
पता भी नहीं चलने देता 
आप मुस्कुराते-मुस्कुराते मिल लेते हैं चंद लोगों से 
या रख देते हैं अपना रुमाल मेज पर 
जो बन चुका है जैविक हथियार 
अनजाने में जो भी उठाएगा 
वह भी धोखे में आ जायेगा 
एक दिन आपका माथा तपता है 
आप अस्पताल चले जाते हैं 
वहां भी यदि नही रहे सचेत तो
सरक जाते हैं कुछ वायरस स्वास्थ्य कर्मी या नर्स पर 
... या कभी डॉक्टर पर 
अनजाने में आप बन चुके हैं वाहक 
भगवान न करे कभी ऐसा घटे  
इसीलिए घर पर ही रहें  ! 

बुधवार, अप्रैल 22

पालघर

पालघर 

जो घर है और जो पालता है 
वहाँ नरभक्षी घुस आये हैं 
जिनसे भयभीत हैं जनता के रक्षक भी 
सुना है 
रावण ऋषि-मुनियों को मरवाया करता था 
निरीह साधुओं पर यह घिनौना अत्याचार 
शायद लौट आयी है 
वही अपसंस्कृति और आसुरी अनाचार 
जहाँ मनों में सद्भाव शेष न रहा हो 
जहाँ साधुओं के प्रति अनास्था का विष घोला जा रहा हो 
जहां मानवता की शिक्षा भी लुप्त हो गयी 
वह समाज कैसे सफल हो सकता है 
गांव जो आश्रय देते थे कभी 
अजनबियों को 
शक की निगाह से देखने लगे हैं अपनों को 
जहाँ जलाया जा रहा हो 
बापू के सपनों को 
जानना होगा उस भीड़ का अभिप्राय 
जो लॉक डाउन में आधी रात को 
बाहर निकल आ जाती है 
केवल संदेह की बिना पर जानवरों की तरह 
घात लगाती है 
किसने भरा
 यह अविश्वास उनके मनों में 
क्यों घेर लिया निरीह यात्रियों को 
क्रोध से अंधे हुए इन आदिवासी जनों ने 
रक्षक भी बेबस हुए देखते रहे 
पालघर में हिंसा के खेल चलते रहे !

मंगलवार, अप्रैल 21

राम

राम  

ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते, 
सदा वसन्त राम अंतर में, 
संध्या के स्वर सदा गूँजते 
रात्रि-दिवस की हर बेला में !

कोना-कोना होता गुंजित 
कोकिल के मधुरिम गीतों से,
सदा महकता उर का उपवन 
ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !

समता का शुभ अनिल विचरता 
रस की खानों से मधु रिसता,
शशधर की शीतल आभा से 
भीगा हुआ प्रेम भी झरता !

उर सरिता के ठहरे जल में 
प्रातः अरुण निज मुखड़ा धोता,
दिन भर विचरण करता नभ में 
 आ पुनः वहीं विश्रांति पाता  !

सोमवार, अप्रैल 20

कौन हैं वह

कौन हैं वह 

सिंह जैसा शौर्य पाया है 
माँ जैसी करुणा अंतर में, 
 धैर्य धरे दृढ चट्टानों सा
प्रामाणिकता है शब्दों में ! 

अन्याय कभी सहन न होता  
दीनों की रक्षा हित आए,
सारे जग में डंका बजता
दोष शत्रु भी ढूंढ न पाए !

जन-जन को आधार दिया है 
भारत का सम्मान बढ़ाया,
लेने पड़े कठोर निर्णय पर 
मस्तक पर इक बल न आया !

कर्मठ जैसे वीर योद्धा
प्रहरी सजग समर्पित सेवक, 
कौन बखाने व्यक्तित्व महान 
निज स्वार्थ को आये तजकर !

उर में जग कल्याण भावना 
सारा जग ही लोहा माने, 
आशा भरी हुई नजरों से 
जैसे उनकी ओर निहारे !



रविवार, अप्रैल 19

साया बनकर साथ सदा है

साया बनकर साथ सदा है

 

कोई अपनों से भी अपना 
निशदिन रहता संग हमारे,
मन जिसको भुला-भुला देता 
जीवन की आपाधापी में !

कोमल परस, पुकार मधुर सी 
अंतर पर अधिकार जताता,
नजर फेर लें घिरे मोह में 
प्रीत सिंधु सनेह बरसाता !

साया बनकर साथ सदा है 
नेह सँदेसे भेजे प्रतिपल,
विरहन प्यास जगाये उर में 
बजती जैसे मधुरिम कलकल  ! 

जगो ! वसन्त जगाने आया 
कोकिल गूंज गूंजती वन-वन,
भरे सुवास पुष्पदल महकें 
मदमाता सा प्रातः समीरण !

जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के 
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! 

अखिल विश्व का स्वामी खुद ही 
रुनझुन स्वर से प्रकट हो रहा,
भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कैसा अद्भुत नाद गूँजता ! 

कान लगाओ, सुनो जागकर 
वसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे 
नदियों के भंवर भाते हैं !

शनिवार, अप्रैल 18

देव और मानव


देव और  मानव 


कोटि-कोटि ब्रह्मांडों के सृजन का 
जो है साक्षी 
अरबों-खरबों आकाश गंगाओं की रचना का भी 
जिसके सम्मुख प्रतिक्षण
 जन्मते और नष्ट होते हैं लाखों नक्षत्र 
वही जो कहाता है महानायक ! 
शिव ! तांडव नर्तक !

इस अपार आयोजन का
 एक नन्हा सा अंश है वसुंधरा 
 सागरों, वनों, पशु-पंछियों संग 
जिस पर मानव उतरा
सृष्टि चालन में शिव का सहायक 
चाहता तो देव बन सकता था मानव 
किन्तु काल की इस अनंत धारा में 
बहता हुआ हो गया वह दानव !

स्वयं को शक्तिशाली समझ 
अन्य जीवों के प्राणों की कीमत पर 
दुर्बलों पर बल प्रयोग कर 
अंतहीन क्षुधा को 
तृप्त करने हेतु 
धरा का किया निरंकुश दोहन 
हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया 
कर अनवरत युद्धों का आयोजन !

कृषकों से भूमि छीनी 
बच्चों के मुख से दूध 
प्रसाधनों के लिए 
निरीह पशुओं को सताया 
 लोभ की पराकाष्ठा हुई अब 
अपरिमित साधन सिमटते ही जाते  
हजारों आज भूखे ही सो जाते 
अब मौसम भी अपने समय पर नहीं आते 
समय रहते चेत जाये 
इसी में उसका भविष्य समाया है 
सृष्टि का वह रखवाला सचेत करने आया है !